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________________ . चतुर्विधदाननिरूपण जो व्याक्त कर्मबलको जीतना चाहिये ऐसा विचार रखता हो वह पहिले . देवपूजादिसत्कार्योको करनेके लिये चतुःसंघसे प्रार्थना करें एवं चतुःसंघको स्तुति, नमन, प्रियोक्ति, एवं दान इत्यादि यथोचित उपचारोंद्वारा सत्कार कर फिर कौँको जीते ॥ ४२ ॥ विनोंको दूर करनेवाला त्रिलोकमान्य होता है । देवधर्मगुरुभूपधार्मिकग्रामविघ्न इह येन मुच्यते । राजनायकजनैस्स पूज्यते स्तूयते त्रिभुवनेऽपि गीयते॥४३ अर्थ-जो मनुष्य देवविघ्न, धर्मविघ्न, गुरुविघ्न, राजविघ्न, धार्मिकजनविघ्न, ग्रामविघ्न आदि विघ्नोंको दूर करता है वह इस लोकमें राज्याधिकारियोंसे सन्मानित होता है। इतनाही नहीं उसकी कीर्ति बढती है, तीन लोकमें सभी उसकी प्रशंसा करते हैं ॥४३॥ . लोके यथा प्रवर्तते साधुवैद्यनृपर्षयः ।। जिनोत्सवे प्रवर्तेरंस्तथैव जिनधार्मिकाः ॥४४॥ . अर्थ-जिस प्रकार लोकमें सज्जन, वैद्य, राजा, और मुनीश्वर अपने उपकारको गौण रखकर निस्वार्थदृष्टिसे परोपकार करते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा श्रावक जिनपूजोत्सवके कार्यमें प्रवृत्ति करें ॥४४ अघ द्वेषकरं न विस्मर मनो मावीक्षि पात्रेक्षणे- । प्यन्योन्यामुहरौ द्विषद्रिपुभटास्ते मापराक्षं बहिः ॥ चिंता मा कुरु धैर्यमेव यतनं युद्धैकचित्ती भवे-। . त्यन्योन्यानुवदत्पट इव मनाइशांतास्सदा जीवित[१]॥१५ अर्ध-युद्धस्थानमें भयंकर द्वेषसे युद्ध करनेवाले शत्रुवोंको प्रेरणा करनेकेलिये कहते हैं कि " अरे भाई ! आज तुम्हारा शत्रु तुम्हारे हाथमें आया है उसको छोडो मत. उसे क्षमा नहीं करना, बराबर उससे युद्ध. करो, बाहरको कोई विता मत करो, केवल युद्ध में ही
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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