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________________ दानशासनम् उपवासका, मध्यमार्ग में पहुंचनेपर पक्षोपवासका एवं जिनमंदिरको देखनेसे मासोपवासका फल मिलता है ॥ ३९ ॥ षण्मासोत्थफलं गृहांगणगते द्वाराग्रगे वार्षिकं । वर्षाणां शतजं प्रदक्षिणवशादृष्टे जिनेंद्रानने ॥ साहलं स्तवने कवेऽत्र लभते भक्त्याप्यनंतं फलं । नियुक्तेन पुमान्विभावसहितः किंचित्फलं च ध्रुवं ॥४०॥ अर्थ-जिनेंद्रमंदिरके अंगणमें जानेपर छह महिनेके उपवासका फल, दरवाजेके पास जानेपर वर्षांपवासका फल, प्रदक्षिणा देनेसे शत वर्षोपवासका फल, जिनेंद्रके मुखदर्शनसे हजार वर्षके उपवासका फल, भक्तिसे स्तुति करनेसे अनंत उपवासका फल नियमसे यह मनुष्य प्राप्त करता है। परंतु ये सब होने चाहिये भावभक्तिसहित उसीसे इस प्रकारके सातिशय फल मिलते हैं । भक्तिरहित होनेपर कुछभी फल ‘नहीं मिलेगा ॥१०॥ द्वादशकायोत्सर्गाः साष्टान्वितशतनमस्क्रियाः शुद्धाः । यः पुरुषः कुरुते स त्रैकाल्यादनशनत्रयं लभते ॥ ११ ॥ अर्थ-जो पुरुष शुद्ध अंतःकरणसे तीन वार प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकालमें बारह कायोत्सर्ग जाप देता हो अथव एकसौ आठ दफे जाप देता हो वह तीन उपवासका फल अवश्य प्राप्त करता है ॥४१॥ राजेवारिबलं पुरात्मनृपति यः स्वस्ववीरान्भटान् । मार्यालंकृतिवस्त्रकर्पटमुखैरुषत्वा प्रियोक्ति जयेत् ॥ जैनः कर्मबलं पुरा निजचतुःसंघ त्रिलोकेष्टदं । संपार्थेत यथोचितस्तुतिनतीष्टोक्त्यर्थदानैर्जयेत् ॥ ४२ ॥ अर्थ- जिस प्रकार राजा अपने शत्रुसेनावोंको जीतने के पहिले • अपने पक्षके राजा, वीरभट आदिसे युद्ध करनेके लिये प्रार्थना करता है एवं उनको वस्त्र आभूषण इत्यादियोंसे सन्मानित करता है इसी प्रकार
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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