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________________ चतुर्विधदाननिरूपण प्रति प्रजायें स्वेच्छाचारपूर्वक व्यवहार करती हैं। इस लिये हे राजन् ! धर्मको और धर्मात्मावोंको तुम रक्षा करो जिस से तुम्हे संपूर्ण तेज प्राप्त हो जाय ॥ ११ ॥ उद्धार करने योग्य चीजें. जीर्णं जिनालयं जिनबिंब सुदृशं च पुस्तकं पूज्यं । पूजकमप्यधिकं स्याद्यदुद्धरेत्पूर्वपुण्यतः पुण्यं ॥१२॥ अर्थ-जीर्ण मंदिर, जीर्ण जिनबिंब, जीर्ण रत्नत्रयधारक, जीर्ण शान, जीर्ण संयमी, एवं देवार्चक, इत्यादिका जो उद्धार करता है वह पूर्वसे भी अधिक पुण्यको प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ ___ अभयदानके अनेकभेद. विर्घोषं तु तटाककूपमृगसामित्रचोरानलः । क्ष्वेडग्रामगतामयप्रभृतिकं श्रुत्वैव यत्रोदितं ॥ तत्रागत्य तदीयदुःखमखिलं नित्यं निवार्यागतो । शूरोऽयं खलु यत्तदेव सकलो लोकश्चिरं जीवति ॥१३॥ अर्थ-मनुष्य तालाब में गिरनेके संकटके विषय में, कुवेमें पडा इस प्रकार, शेर वगैरहसे पकडा गया ऐसा, सर्पसे काटा गया, शत्रुवोंसे बाधित किया गया, चोरोंसे लूटा गया, आगसे जल गया, विषसे आहत हुआ अथवा कोई रोगविशेषसे पीडित हुआ इस प्रकार दो आवाज सुननेपर भी उस घटनास्थल में पहुंचकर संकटापन्न प्राणियोंकी आपत्तियोंको दूर करें । अज्ञानीजनोंके दुःख मिटावे यह सब अभयदान है ॥ १३ ॥ तदस्ति न सुखं लोके न भूतं न भविष्यति । यन्न संपद्यते सद्यो जतोरभयदानतः ॥ १४ ॥ अर्थ-जो सुख अभयदानसे प्राणियोंको प्राप्त न हुआ हो वह
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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