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________________ २८ दानशासनम् सुख लोक में न हुआ, न है और न होगा अर्थात्, अभयदान से प्राणि योंको सर्वप्रकारके सुख प्राप्त होते हैं ॥ १४ ॥ अभयदानसे मिलनेवाले लाभोंका सविस्तर विवेचन. येsaति तेजांसि निजाश्रितानां विद्वद्भिषग्ज्योतिषिकादिकानां । तेषामृषीणां गुणिनां वृषाणां शुक्लेन्दुवदृद्धिमुपैति तेजः १५ अर्थ - जो राजा अपने आश्रित मनुष्योंका, विद्वानोंका, वैद्य, ज्योतिषी आदिका, संयमियोंका, गुणियोंका एवं धर्मका तेज बढाते हैं एवं रक्षा करते हैं उनके स्वयंका तेज भी शुक्लपक्ष के चंद्रमा के समान बढता है || १५ ॥ स्वीयानन्यजनानिवान्यवनिताः स्वस्त्रीरिव स्वं धनं । चान्यानिव देवताश्च सकलाः स्वीया इव क्ष्माभृतः ॥ स्वस्थानत्रयवर्तिनस्तनुमतो रक्षति सर्वान्पुरा । स्त्री वाव्याज्ञ्जनपुण्यदुष्कृतपतिस्सर्वं त्रिशुद्ध योचितं ॥ १६ ॥ अर्थ - पूर्वकाल में राजा अन्य प्रजावोंको अपने बंधुवोंके समान रक्षण करते थे, अपनी स्त्री के पातिव्रत्यधर्मको रक्षण करना जितना आवश्यक है उतनाही परस्त्रियोंके पातिव्रत्यका रक्षण करना आवश्यक समझते थे, अपने धनके समान, दूसरोंके धनका रक्षण करते थे, सर्व संप्रदाय के देवोंको अपनेही देव समझते थे, इसी प्रकार कोई प्रकारका कष्ट नहीं होने देते थे, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री अपने चाहे जैसे पति हो उसकी सेवा करती है उसी प्रकार अपने राज्य में रहनेवाले पुण्यात्मा पापात्माको मनवचन कायकी शुद्धिसे रक्षा करते थे । यही अभयदानका आदर्श है ॥ १६ ॥ यत्रास्ते नृपतिर्मुनिर्यदलं तेजः प्रजानां तयो - | बधां वारयतीत्ययं च कुरुते सौख्यं च पुण्यं शुभं ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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