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________________ दानशासनम् हानि भी नहीं होती है, वे अपने आश्रित प्राणियोंकी रक्षा करते हैं इस लिये उनकी रक्षा उनके पुण्य सदा करते हैं इसमें कोई संदेह नहीं ॥९॥ कर्माण्यात्मनि दुर्द्धराणि विषमा दोषा वपुष्यासते । बाधते तमदश्च तानि रिपुवत्पुण्यानिवृध्या न ते ॥ एक वर्षकरौ (?) प्रभो तव करेणैकेन शस्त्रेण भो । कान्कान्हन्ति भवान् द्विषः पदपदे भीताः स्वतेजोबलात् ॥ अर्थ-राजाको अभयदान करनेके लिये किस प्रकार प्रेरणा करनी चाहिये यह बात कहते हैं। __ हे प्रभो ! आत्मामें दुर्द्धर कर्म अनादिकालसे लगे हुए हैं, शरीर में वातपित्त कफादिक विषम दोष लगे हुए हैं। वे आत्मा और शरीरको शत्रूके समान कष्ट देते हैं। आपके पुण्यवृद्धिसे वे आपको दुःख नहीं देते हैं । इसी प्रकार कर्मके उदयसे सर्व प्राणी त्रसित हैं । आप अपने एक शरीरसे, एक हाथसे शस्त्र लेकर किस प्राणियोंको मारेंगे उनको अभयदान दीजिये । उस अनंत पुण्यतेजसे आपके शत्रु भी डरकर मित्र होजायेंगे ॥ १० ॥ मंदेंगानळतेजसीव कृतिनः पथ्याश्च दोषा निजाः । स्ने चान्ये च विकुर्वते गतमहस्युर्वीपतौ भस्मनि ॥ त्यक्तोष्णे शुनका यथा गतभयास्संशेरते ताः प्रजाः। धर्म धर्मकराश्च पाहि सकलान् लब्धं स्वतेजोऽखिलं॥११॥ अर्थ-हे राजन् ! मनुष्यों के शरीर में यदि अग्नि मंद हो जाय तो शरीरके दोष विकारको प्राप्त होते हैं, इसी प्रकार यदि गजा तेजोहीन हो गया तो उनके स्वजन और परजन सबके सब विकारको प्राप्त होते हैं, एवंच जिस प्रकार जिस भस्म में उष्णता न हो उसमें कुत्ते भी जाकर निर्भय होकर सोते हैं इसी प्रकार तेजोहीन राजाके
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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