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________________ ३१२ दानशासनम् - र तपश्चरणसे सुख नानेकक्षणसन्निभैकजनने वाजं ? विनान्तर्बहि-। ग्रंन्थं सर्वमिषं विहाय तपसि क्षान्तः कषायोज्झितः । यो वर्तेत मुनिः स चापरिमितं काळं प्रयासं विना । स्वर्गे सौख्यकरं सुखं त्वनुभवेबुध्दैव कुर्यात्तपः ॥ ९८ ॥. अर्थ -- अत्यंत चंचल, नश्वर इस अंतरंग व बहिरंग परिग्रहको त्याग कर जो व्यक्ति उत्तमक्षमादिगुणोंको धारणकर, कषायोंका परित्याग कर तपश्चर्यामें लीन रहता है । वह मुनि अपरिमितकाल पर्यंत स्वर्गीयसुखका अनुभव करता है । इस प्रकार जानकर शुद्ध अंतःकरणसे तपश्चर्या करनी चाहिए ॥ ९८ ॥ उच-क्षणैकनिभमेकमन्पनि विनानमेवाखिलं । परिग्रहमिमं विहाय करणत्रयान्निर्मले ॥ लसत्तपसि वर्ततेऽपरिमितं च कालं मुखं । सदानुभवितुं भवेदिह विना प्रयास क्षमः ॥ ९९ ॥ अर्थ-कहा भी है, क्षणभर भी जिसका भरोसा नहीं है, ऐसे परिग्रहको त्यागकर मन वचन कायकी विशुद्धि से जो तपश्चर्या करता है वह अपरिमित कालतक सुखको विना श्रमके ही अनुभव करता है अर्थात् मोक्षलक्ष्मीको पाता है ॥९९॥ . आचरणके अनुसार फल मत्वा जैनजनान्विशारदजनान् दत्वा च तेभ्यो धनं । विस्मृत्यात्मगुणांश्च चेतसि च तदोषान् स्मरन्ती जनाः॥ शंसन्तीह पुरो नमन्ति चरमे काले च पापोदया-। . द्वंधोऽयं भुवि पातको नट इमानंचन्ति निदन्ति च ॥१०० अर्थ-जो भव्यजीव सैन-विद्वान लोगोंका सन्मान करके धन देते
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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