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________________ भावलक्षणविधानम् anAmAAAA. aanA है, परंतु उनके गुणोंको भूलकर उनके दोषोंका स्मरण करते रहते हैं। तथा उनको प्रत्यक्षमें नमस्कार कर परोक्षमें उनकी निंदा करते हैं ऐसे लोगोंको जो कर्मबंध होता है उसका उदय होनेपर वे भी प्रत्यक्षमें पूज्य होते हैं परंतु परोक्षनिंदाके पात्र बनते हैं। अर्थात् उनकी प्रत्यक्ष तो स्तुति होती है परंतु परोक्षमें लोग उनकी बुराई करते हैं। जैसा जो आचरण करेगा वैसा फल मिलता है, यह इस श्लोकका अभिप्राय समझना चाहिये ।। १०० ॥ स्वक्षेत्रको छोडनेवाला पापी है स्वकीयसुक्षेत्रयुगं विहाय दुःक्षेत्रयुग्मेऽपि च वर्तते यः। इहाप्यमुत्रात्महितं सुतं (ख) न लभेत धर्म स च पापवान् भवेत् ॥ अर्थ-जो व्यक्ति अपने सच्चे देव गुरुवोंके क्षेत्रको छोडकर दूसरोंके मिथ्याक्षेत्रों में प्रवृत्ति करते हैं वे इहपरमें सुखको प्राप्त नहीं कर सकते, उनके हाथसे धर्माचरण भी नहीं हो सका है, वह पापी है ॥ १०१ ॥ ___ मातापितादिकोंकी निंदाका फल मातापित्रीरुदास्ते यो धर्मे संघे जिने गुरौ । . सोऽरिभिः स्वैः परनित्यं भवेद्वध्यो भवे भवे ॥ १०२ ॥ अर्थ-जो माता, पिता, धर्म, संघ, जिनदेव व गुरु आदिकी अबहेलना या उपेक्षा करता है, वह भवभवमें शत्रुओंके द्वारा मारा जाता है । और सदा कष्टका अनुभव करता है ॥ १०॥ . स्वद्रव्यको छोडकर परद्रव्यका अपहरण न करें यत्पापागमने यदर्जितमिदं हस्तागतं स्वं धनं । .. सर्व नश्यति तत्क्षणे परधनं राज्ञाहतं सर्वदा ॥ सर्वे ते बुध वंचयन्ति च परैः क्लिश्नाति चिसे भवान् । क्लेशं मा कुरु मा स्पृशान्यधनमात्मन्यतो जीव भोः ।।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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