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________________ भावलक्षणविधानम् जिस प्रकार कि दुर्गंधयुक्त घर आदि में कीडे आदि प्रवेश करते हैं उसी प्रकार अशुभ परिणामसे अशुभ कर्म आते हैं ॥ ९३ ॥ जैन मुनियोंके समाधिभंगफल जिनमुनिसमाधिसमये चित्तनिरोधं करोति यस्तस्य । गेहपुरदेशनाशः स्वस्थानोच्चाटनं भवेनियमात् ॥ ९४ ॥ अर्थ – जैन मुनियोंकी समाधिके समय में जो व्यक्ति उनके चित्तमें क्षोभ उत्पन्न करता है, उसका घर, नगर, देश आदिका नाश होता है, इतना ही नहीं अपने स्थानका उच्चाटन होता है ॥ ९४ ॥ पापभीरु गुरुजनोंके असानपर नहीं बैठते आसने यत्र तिष्ठन्ति राजानो गुरवो बुधाः ॥ तत्र तत्रासने जैना न वसन्त्यघभीरवः ॥ ९५ ॥ ३३१ अर्थ - जिस आसनपर राजा, गुरु व विद्वान् विराजमान होते हैं, - उस आसन पर पापभीरु जैन कभी नहीं बैठते हैं ।। ९५ ॥ विदुषा गुरुणा राज्ञा साकमेकासने बुधाः । तत्तुल्यधर्मरहिता न तिष्ठेयुः कदाचन ॥ ९६ ॥ अर्थ - विद्वान, गुरु, व राजाके आसनपर उनके समान गुणोंसे विरहित सामान्यजनोंको कभी न बैठना चाहिए ॥ ९६ ॥ सज्जन पापकार्यको त्याग दें त्यक्त्वाऽस्तेऽमजीर्णे वा सन्निपाते च कामिनीम् ॥ कृतीव पापकृत्यानि कषायानिव पुण्यवान् ॥ ९७ ॥ अर्थ - जिस प्रकार अजीर्ण होनेपर अन्नका, सन्निपात होनेपर स्त्रीका, पुण्यवान् व्यक्ति कषायोंका त्याग करता है उसी प्रकार सज्ज - पाका त्याग करना चाहिए ॥ ९७ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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