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________________ भावलक्षणविधानम् ३०७ तरुण व मध्य अवस्थामें सेवा योग्य होते हैं । जब वे वृद्ध होते हैं तब वे सेवाके लिए अयोग्य हो जाते हैं । अर्थात् उन के परिणाम निर्मल नहीं होते हैं । लोभादिकसे दूषित होते हैं इसलिए वे आदर योग्य नहीं रहते हैं । कुष्मांड फल जब पूर्ण पक्क हो जाता है तब उस को संस्कृत करके अर्थात् शक्करकी चासनी वगैरह मिलाकर उसका सेवन करते हैं । परंतु जब वह बिलकुल कोमल रहता है तब उसको संस्कार करके भी खाना योग्य नहीं है । क्यों कि वह बाल्यावस्था में विषतुल्य है ऐसा वैद्य कहते हैं॥६॥ जीवाः केचिदिवाय चिर्भटफळ सेव्यं न संस्कारतः । सेव्य केवलमेव सेव्यमखिलं स्यावृद्धमन्तेऽमृतम् ।। केचित् पूज्यसुसेव्यमेव फलमप्यूरिवं सर्वदा । दोषाणां सरुजां न पथ्यमिह तद्वैषम्यभामां सदा ॥ ७ ॥ अर्थ-कितनेक जीव कचरियाके समान सेवनीय ही होते हैं । उनके ऊपर संस्कार करने की आवश्यकता नहीं होती है । अर्थात् उनके परिणामोंमें निर्मलता संस्कारके विना ही रहती है । कचरिया जब पक जाती है तब अमृतके समान मीठी होती है । उसी तरह कितनेक जीवोंके परिणाम अमृतके समान पूर्ण पापरहित तथा हितकारक होते हैं । फूट नाम का फल [ ककडी विशेष ] नीरोग आदमी को हितकर होता है। परंतु रोगीको वह पथ्य नहीं है । उसी तरह कितनेक जीव सदोष लोगोंसे सेवनीय नहीं होते हैं। यदि वे उनकी सेवा सहवास करेंगे तो उनका अहित होगा ॥ ७ ॥ मूलं च कायः कुसुमं फलं च श्वतं च जम्ब्वाः परिणामकाले । रक्तं मुकृष्णं सरसं फलं च सुस्वादुमिष्टं भवभेदि शीतम् ॥८॥ अर्थ:- जंबूवृक्षका मूल, काय, पुष्प, फल ये सबके सब श्वेत हैं, परंतु वह पकते ममय लाल होकर फिर काला होता है। परंतु
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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