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________________ ३०६ दानशासनम् आदि कषायोंसे युक्त रहते हैं, साधुजनोंको गाली देते हैं, और अपने धर्माबांधवोंको कष्ट देते हैं। ऐसे दुष्ट जहां रहते हैं उनका सहवास पवित्र गुणोंको धारण करनेवाले जिनभक्त कभी न करें ॥ २ ॥ जीवानां भावभेदाः स्युः स्वादुवच्च कषायवत् । तिक्तवत्कटुवत्केचित्केचित्कटुवदम्लवत् ॥ ३ ॥ रसानामिह सर्वेषामेको द्वौ वा यथा त्रयः । चत्वार इव पंचेव षडूसा इव भूतले ॥ ४ ॥ अर्थ--जीवोंके परिणाम अनेक प्रकारके होते हैं। जिस प्रकार रसोंके भेद स्वादु, कषाय, तीखा, कटु, लवण, अम्लके रूपमें होते हैं उसी प्रकार जीवके परिणामोंमें भी अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं ॥ ३ - ४ ॥ यथा स्निन्धी यथा रूक्षो यथा शीतो यथोष्णकः । गुरुवल्लघुवत्केचिन्मृदुवत्खरवत्सदा ॥ ५॥ अर्थ-किसीका परिणाम स्निग्ध रहता है, किसीका रूक्ष राता है, किसीका शीत तो किसीका उष्ण, और किसीका गुरु तो किसीका लघु रहता है । और किसीका मृदु परिणाम रहता है और किसीका कर्कश परिणाम रहता है अर्थात् आठ प्रकारके स्पोंके समान जीवोंके परिणाम भी होते हैं ॥ ५॥ सेव्यं बालयुवाल्पमध्यफलमेवा!चित कार्कटं । वृद्धं चेदहिरद्य विक्षिपति यत्तद्वच्च केचिज्जनाः ॥ सेव्यं वृद्धमिवाद्य संस्कृतिवशात्केचिच्च कूष्मांडिकं । बालं यद्विषवद्वदति भिषजः सेव्यं न संस्कारतः ॥ ६॥ अर्थ-ककडी बिलकुल कोमल, थोडा कठोर तथा कोमलकठोर ऐसी अवस्थाओमें भी सेव्य है। परंतु जब वह पूर्ण कठोर होती है तब उसे कोई भी मनुष्य नहीं खाता है । उसी तरह कितनेक मनुष्य, बाल,
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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