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________________ दानशासनम् - खाते समय स्वादिष्ट व मीठा लगता है । व परिणाम शीत है । इस प्रकार के परिणामको धारण करनेवाले कोई जीव होते हैं ॥ ८ ॥ सेवासमये सरसं वदनं विरसं करोति वस्त्वाखलम् । सरसं विरसं वक्त्रं रुणद्धि कंठं पूरीषमूत्रं च ॥ ९॥ अर्थः-उस फलको सेवन करते समय सरस मालुम होता है, परंतु मुखको विरस करता है । एवं समस्त अन्य सरस पदार्थके खाने पर भी उसे विरस कर देता है । मुखको विरस करता है। कंठ व मलमूत्रको रोकता है ॥ ९ ॥ केचित्कंका यथा जंतुघातका मित्रभेदकाः। केचित्कंका इवाभान्ति फेशदोषापहारिणः ॥ १० ॥ अर्थः-कोई कंघे जिस प्रकार शिरपर रहे हुए जू आदि प्राणियोंका नाश करते हैं, इस प्रकार कोई २ मित्रोंको भेद करनेवाले होते हैं । कोई कंघे जिस प्रकार केश के दोषोंको दूर करते हैं, उसी प्रकार कोई २ मनुष्योंका परिणाम रहता है ॥ १० ॥ भेदकृज्जन्तुहा कश्चित्सस्नेहे सति कंकवत् । .. निस्नेहेऽपि च जन्तुघ्नस्तस्मिन्नाभिमुखः सदा ॥ ११ ॥ अर्थ-कोई कंघा जिस प्रकार शिरपर तेलके रहनेपर जू आदि को भेद करनेवाला व उसे नाश करनेवाला होता है । उसी प्रकार कोई २ अत्यधिक स्नेह रहनेपर भी वहां भेदभाव उत्पन्न करते हैं व उन को हानि पहुंचाते हैं । कोई कंघा तेल न रहने पर भी जंतुका नाश करता है । इसी प्रकार कोई प्रेम न रहनेपर भी दूसरोंकी हानि ही करते हैं । इस प्रकार इन लोगोंसे हमेशा दूर रहना चाहिए ॥ ११ ॥ आदत्ते दोषिणां दोषान् निर्दोषो विमुखीभवेत् ।। सदोषो रक्तं पिबति निर्दोष नैव रक्तपाः ।। १२ ॥ अर्थ- हमेशा दोषी ही दोषियोंके दोषको ग्रहण करता है।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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