SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ दानशासनम् विशेषार्थ - भूमि - यह जमीन बहुत से प्रकार के धान्यादिकों को उत्पन्न कर दूसरोंके उपकारके लिए दिया करती है । परंतु उनको कभी वापिस नहीं लेती है, धान्यों की उत्पत्ति के लिए स्वयं की छाती पर वह इल चलाने देती है, अनेक प्रकारसे कष्ट सहन करती है, यह सब किस लिए ? परोपकार के लिए । गो - जिस प्रकार गाय घास और पानीको ग्रहण कर दूध देती है, उसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं है, उसी प्रकार दानियोंकी वृत्ति होनी चाहिये | तटाक- - तालाव अपने पानीके द्वारा समस्त वृद्धि में सहायता करता है, उसीप्रकार दातृजन भी परोपकार करते हैं । मदी - जिसप्रकार नदीसे पानी कोई ले जाकर उसे कम करें, चाहे कोई शत्रु आकर उससे पानी लेजाय, बंध बांध देवें, तो उसके साथ या चाहे जैसी अनुचितवृत्तिको धारण करनेवालोंके साथ लडती नहीं, भिडती नहीं, अन्यथा विचार नहीं करती है, इसी प्रकार उदार हृदयी दानियों की वृत्ति रहती है । खेत के सस्यों की अपने धनके द्वारा समुद्र - जिसप्रकार समुद्र गंभीर रहता है, उसके पास जो रत्न हैं उसे कोई ले जावें तो भी उसकी महत्ता में कोई अंतर नहीं आता है, इसी प्रकार दानियोंकी गंभीर मनोवृत्ति रहती है । शुक्ति - सीपके अंदर पडे हुए मोतीके समान दाताजनों की आत्मा मुक्तिस्थित सिद्धके समान शुद्ध रहती है । * मेघ - जिसप्रकार बादल अबाचित होकर ही पानी बरसाती है, एवं लोकको संतुष्ट करती है उसी प्रकार दातावों की वृत्ति रहती है । अयाचितस्तृप्तिकरो रसाढ्यः सध्वावलीतापहरः पयोदः । ताबधानः शिशुपोऽत्रधात्रीजनो यथा दातृजनस्तथा स्यात् ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy