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________________ दानफलविचार २५७ नहीं हो सकता है, किसी सौदेको निश्चित करनके लिए दी हुई साही का ही यदि व्यापारीने अपहरण कर लिया तो उसको कोई लाभ नहीं हो सकता है। इसी प्रकार पात्र के लिए दिए हुए धनको ग्रहण करने पर विपुल पुण्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो सज्जन शुद्ध पुण्य का अर्जन करना चाहते हैं, उनको उचित है कि जिस प्रकार दिए हुए आहारको पुनः स्पर्श नहीं करते एवं दी हुई कन्याको पुनः प्राण नहीं करते, उसी प्रकार पात्रोंको दिए हुए दानद्रव्यको पुनः स्पर्श न करें ॥ २०८ ॥ दत्तद्रव्यग्रहणनिषेध मुक्षेत्रोप्तसुतुंगपूगपनसबीह्यादिवीजानि यः । किं गृहाति कृषीवलःस्मरति किं बीजं समुप्तं मम । सोऽये सर्वफलानि संति मनसि स्मृत्वैव तृप्तो भवे-॥ इत्तद्रव्यमुददं तु सदया जैना उदकैषिणः ॥ २०९ ॥ अर्थ-अच्छी भूमिमें बोए हुए नारियल, सुपारी, पनस, धान आदिके बीजको क्या कोई किसान ग्रहण करता है ? कभी नहीं, वह उन के उत्तर फलोंको मनमें स्मरण करते हुए संतुष्ट होता है। इसी प्रकार दयालु प्रशस्त दाताको भी उचित है कि वह दानके उत्तरफल को ध्यानमें रखते हुए दिए हुए व्यका पुनः ग्रहण न करें ॥ २०९॥ भूगोतटाकनयब्धिशुक्त्यन्दाधुनुमा यथा । न स्मरंति न गृह्णन्ति दत्तद्रव्याणि दानिनः ॥ २१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार भूमि, गाय, तालाव, नदी, समुद्र, सीप, आकाश, कूआ और वृक्ष परोपकार करते हैं और दिये हुए पदार्थको वापिस नहीं लेते हैं, उसी प्रकार दानी भी दिए हुए द्रव्योंको न स्मरण करते हैं और न ग्रहण करते हैं ॥ २१० ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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