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________________ दातलक्षणविधिः दत्वा तच्छ्रमदोषशांतिकरणी रक्षेद्यति तं तया । सा लक्ष्मीः सुकृतपदा गुणकरी लोकः पवित्रीकृतः॥५८॥ अर्थ-जिस प्रकार माता बालककी शरीरप्रकृतिको अच्छी तरह जानती है, उसी प्रकार साधुवोंके मुखको या आवाजके बलाबलको देखकर उनके शरीरके श्रम व प्रकृतिको जानलेना चाहिये । फिर उन की प्रकृति के लिए अनुकूल, श्रमदोषोपशमनमें सहायक, संयमवर्धक कालोचित आहारको बुद्धिमत्ताखे प्रदान करना चाहिये एवं उस साधु का संरक्षण करना चाहिये । वह सती सचमुचमें लक्ष्मी है, पुण्यदायिनी है । गुणोंको बढानेवाली है । एवं उसके द्वारा लोक भी पवित्र किया जाता है ॥ ५८ ॥ दृष्टवैका मनिमागतं निहितसर्वार्थागता नौरिव । साक्षात्सिद्धरसः करागत इव स्वर्धनुरागता ।। इत्यात्माशयजाततुष्टिललिता सा स्त्री विना तत्तपः । स्वाकूनस्मृतिमात्रतो द्विगुणिती लब्धस्तयायो गुरोः॥५९॥ अर्थ-जो स्त्री अपने घरमें मुनियोंके आगमन होने पर ऐसा समझती है कि सर्व संपत्तिसे भरा हुआ जहाज ही आगया है, साक्षासिद्धरस ही हाथमें आगया है, स्वर्गकी कामधेनु ही आगई है, वह सस्ती अपने पुण्यमय अभिप्रायसे संतुष्ट होती हुई, ऋषिराजके तपश्चर्याके प्रभावके विना ही अपनी शुभ भावनासे ही उन मुनिराजके तपसे भी द्विगुणित पुण्यको प्राप्त करलेती है । भावनाका फल अचिंत्य है ॥५९॥ पात्रशंसन. माता पुत्रमवेक्ष्य लोचनयुगापूर्ण समभ्युत्थिना । राजा वा कळभोऽग्रजो मम पितानंदेन वाऽत्रागतः ॥ पुण्यं पुण्यकरं सुखं सुखकर पात्रं नराः श्राविका- । स्सयो विघ्नहरं सतां हितकरं शंसन्ति संदर्शनात्॥६०॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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