SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासनम् - - समान जिनमंदिर, व मुनिवासमें प्रवेश करनेके लिए निषेध किया गया है एवं च वह जिनमंदिरके उपकरणोंको बरतन वगैरेहको बया मुनिदानके उपकरण व बरतनोंको स्पर्श नहीं कर सकता है। यदि वह इस आदेशकी आवहेलना कर जिनमंदिर व मुनिवासमें प्रवेश करें एवं उन उपकरण व बरतनों को स्पर्श करें तो वह कोढ सर्वांग व्याप्त होता है और बादमें वह नरकादि दुर्गतिको+ चला जाता है। इसलिए मुनिदान, जिनपूजादिकार्योंमें बहुत ही पवित्रताका व्यवहार करना चाहिये ॥ ५६ ॥ उत्तमदातृयुगललक्षण पात्रं स्वागतमुक्तमुत्तमवचः पत्युर्निशम्यांगना । वंध्या पुत्रमदृग्दृशं निधिमरा राज्यं यथा राजतुक् ॥ . कब्ध्वाधत्त इति प्रमोदमतुलं सा तस्य धेनुनिधिः । कल्पद्रुः सदयानघा गुणवती पुण्यात्मिका देवता ॥५॥ अर्थ-जो स्त्री अपने पति के, साधुवोंको प्रतिग्रहण कर स्वागत करने के उत्तम वचनोंको सुनकर, वंध्या स्त्री पुत्रके पानेपर, अंधा आखोंके पानेपर, दरिद्री निधि के मिलनेपर, राजपुत्र राज्यके मिलनेपर जिस प्रकार प्रसन्न होता है, उसी प्रकार प्रसन्न होती है वह स्त्री सामान्य स्त्री नहीं है। कामधेनु है. निधि है, कल्पवृक्ष है, दयालु है, पापरहित है, गुणवती है, इतना ही क्यों ? वह साक्षात् पुण्यदेवता है ॥ ५७ ॥ प्रशस्तदात्री. वीक्ष्यास्यं श्रममंगना च यतिनो वाचावलेनांबुना । ज्ञात्वा तत्प्रकृति प्रमूरिव शिशोः कालोचितामाहतिम् ॥ + दत्तेऽन्ने वित्रिणा येन तदोषादधिकामयी । न्यक्कुर्वति च तं सर्वे पश्चादच्छति दुर्गतिम् ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy