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________________ दानशासनम् - - अर्थ-जिस प्रकार माता अपने प्रिय पुत्रके आनेपर उसे आंख भरकर देखलेती है व हर्षसे उठकर उसे लेती हुई, “ मेरा राजा आगया, हाथीका बच्चा आगया, भाई आया, बाप आया " इत्यादि शरोंको कहकर अपने हृदयके सातिशय आनंदको व्यक्त करती है, उसी प्रकार जिनभक्त श्रावक श्राविकायें पुण्यस्वरूप व पुण्यकारक, सुखस्वरूप व सुखकारक, सद्यः ही विघ्नको दूर करनेवाले, सर्व लोकके हितकारी बंधु पात्रोंको देखकर भक्तिसे प्रशंसा करते हैं ॥६०॥ या प्रक्षाल्य पदद्वयं निजपतेः संमार्य गंधादिभि-।। स्सा विक्षिप्य सुमं तयोर्नमति सा पुण्यानुकूलांगना ॥ सा साध्वी च पतिव्रता निजगुणद्वेषे च रागे समा। तस्मान्मर्त्य सुरोद्भवं सुखमलं निर्वाणमेति क्रमात् ॥६१॥ अर्थ-जो स्त्री अपने पतिके चरणकमलोंको धोकर गंधादियोंसे पूजा करती है व वंदना करती है वह स्त्री पुण्यवती है, साध्वी है, पतिव्रता है, उसके गुणके प्रति कोई द्वेष करें या अनुराग करें, दोनोंमें उसके हृदय में समान भावना है। ऐसी साध्वीमणिको पानेवाला पुरुष धन्य है । वह स्वर्गकी देवताओंके द्वारा भोगने योग्य सुखको यहांपर पाता है। एवं क्रमसे उसे मुक्तिलक्ष्मी भी प्राप्त होती है ।। ६१ ॥ दानकार्यमें वय. क्षुदितो मुखवारि गिरनशुची रोगी जुगुप्सकोऽतिविषः ॥ मुनिहस्तकबलदाने लुब्धो नाभीष्टवस्तुदानाज्ञः ॥ ६२ ॥ अर्थ-मुनियोंको आहारदान देते समय भूखेको, मुंहसे पानी गिरनेवालेको, अशुचीको, रोगीको, ग्लानीको, मेत्रदोषीको, लोभीको व निर्दोष व प्रकृतिके अनुकूल पदार्थ देनेके विषयों मूर्खको वर्ण्य करना चाहिये अर्थात् ऐसे व्यक्तियोंको आहारदानके कार्यमें नहीं लेना चाहिये ।। ६२ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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