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________________ दातृलक्षणविधिः १९५ नहीं, बंधु-बांधव, सेवक, विद्वान्, पुत्र, स्त्रियां आदि कोई उसके आश्रयम जाते नहीं । वह सदा दुःखी रहता है ॥ ५४ ॥ आहारके समय वर्ण्य मनुष्य मिथ्यादृग्वृषनाशको गुणहरः क्षुद्वान्त्रणी दृषकः । कुष्ठी क्रूरमना विरोधकरणः फेलादनः सामयः ॥ वित्री सूतकवान्मतच्युतजनो दोषी निषिद्धांबरः। स्निग्धांगोऽक्षिविषश्च भुक्तिसमये वो गुणगुरोः ॥५५ अर्थ-गुणवान् पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे साधुओंके आहार के समय में मिथ्यादृष्टि, धर्मद्रोही, गुणापहारी, पातिव्रत्यादि गुणोंसे रहित स्त्री, भूखा, व्रणी, धर्मनिंदक, कोढी, क्रूरपरिणामी, विरोधी, उच्छिष्ट खानेवाले, रोगी, श्वेतकुष्टी, सूतकी, मतभ्रष्ट, समाजबहिष्कृत, मैले कपडेके धारक, तेलसे लिप्त शरीरवाले, नेत्रदोषी, आदिको वर्जन करें अर्थात् साधुवोंको आहारके समय उपर्युक्त प्रकारके मनुष्य दृष्टिगोचर न हों इसका ध्यान रखें ॥ ५५ ॥ ___ और भी वर्ण्य विषय विण्मूत्राघशुचौ जिनालयगते येनानदाने कृते । साधुभ्यश्च स सप्तजन्मनि भवेच्छुित्रादिकुष्टी स च ॥ जैन गेहमृषिविंशेन मलिनी भाण्डादिकं न स्पृशेत् । स्पृष्ट तत्र गृह गतेऽधिकरुनो गच्छेदसौ दुर्गतिम् ॥५६॥ अर्थ-मलमूत्र विसर्जनादिसे उत्पन्न अशुचिकी अवस्थामें जिनालयमें प्रवेश नहीं करना चाहिए । एवं उस हालतमें साधुवोंको आहार दान भी नहीं देना चाहिए । यदि उस अशौवावस्थामें जिनालय में प्रवेश करें एवं साधुवोंको आहारदान देखें तो वह सात जन्मतक श्वेतकुष्ठादि भयंकर रोग से पीडित होता है। कोढीको सूतकीके
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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