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________________ दानशासन - साधुसंतर्पणमें बहाना बही रोगादिवाधास्ति गेहे नो घटतेऽद्य न । इत्युक्तिं वद मा जीव ! साधून संतपयेः सदा ॥ ५२ ॥ अर्थ-किसी उत्तम पात्र साधुके अपने नगरमें आनेके बाद यदि आहारदान देना नहीं हो तो लोग बहाना करते हैं कि आज हमारे घरमें कोई बीमार है, आज आहार नहीं बनाया जा सकता है इत्यादि । आचार्य कहते हैं कि पात्रदानमें इस प्रकार बहानाबाजी करना ठीक नहीं है । साधुवोंका संतर्पण सदा करना चाहिये । यही सत्पुरुषों का कर्तव्य है ।। ५२ ॥ __ आहारमें वर्जनविषय शाठ्यं गर्वमवज्ञामधीलचरणप्रवेशवाक्पारुष्यम् । भिक्षो जनसमये जीवं चासंयमं त्यजेत्परिप्लावम् ॥५३॥ अर्थ-जिस समय साधु आहारके लिए अपने घरमें आवें, उस समय दुष्टताका परित्याग करना चाहिये, गर्वको छोडना चाहिये, साधुका अनादर न करें, पैर न धोकर अंदर प्रवेश न करें, कठोर वचन न बोलें, हिंसानंदी कुत्ते बिल्ली आदि प्राणियोंको सामने न रवखें, चंचलता का परित्याग करें। इन बातोंसे साधुवोंके चित्तमें क्षोभ उत्पन्न होनेकी संभावना है । इसलिए इन बातोंको अवश्य छोडना चाहिये ॥ ५३ ॥ कठोरवचनका त्याग ... यत्र कर्कशवचोस्ति तं नरं नाश्रयंति सुगुणा यशांस्ययाः । बंधुसेवकवुधास्मृताः स्त्रियो व्याघ्रगेहमिव गोमृगा इह ॥५४॥ अर्थ- जिस प्रकार व्याघ्रके गुफाका आश्रय गाय, हरिण आदि नहीं करते, उसी प्रकार जो मनुष्य कठोर वचनको बोलता है उसका . आश्रय रत्नत्रयादिक गुण, कीर्ति व पुण्य नहीं करते हैं। इतना ही
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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