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________________ दातुलक्षणविधिः कर्तव्यं चेदीदृशं यो न कुर्यात् । पश्चाच्छद्बो नास्तिपर्याय उक्तः ॥ ४९ ॥ १९३ अर्थ – हे जीव ! यह कार्य अभी करने योग्य है, यह कल करने योग्य है, इत्यादि प्रकार से अच्छी तरह विचार करके ही समस्त कर्तव्यों का पालन करना चाहिये | इसप्रकार कार्य विभागोंको न कर " बाद में करेंगे " इस श्रेणीमें जो कर्तव्योंको ढकेलता है वह आलसी है । उसके कोई कार्य नहीं होते हैं। क्यों कि बादमें करनेका अर्थ ही नास्ति है ॥ ४९ ॥ वित्तान्नांशुकचाटुभिः पटुभटान्पाता सुरक्षन्विदन् । जित्वा तैर्निजवैरियुद्धमिव भो जीवत्यजस्त्रं मुदा || रोगे भूपतिविग्रहे रिपुभये तेजःक्षये बंधने । धर्मोद्योगकृतौ च दानमतुलं देयं बुधैस्साधवे ॥ ५० ॥ अर्थ - जिस प्रकार राजा अपने आश्रितोंका संरक्षण, धन, अन्न, वस्त्र, मिष्टवचन आदिकसे करते हुए उनसे अपने वैरियोंको जीतता है उसी प्रकार साधुओंको रोगकी हालतमें, राजाओंकी ओरसे उत्पात के समय में, शत्रुभयमें, तेजक्षय के समयमें, बंधन के समय में, धर्मप्रभावनाके समय में दिल खोलकर दान देवें जिससे पुण्यकी वृद्धि होती है ॥५०॥ लोकरीति दुःखे दुःखकरोद्योगं सुखे सुखकरं सदा । लोकः करोति शास्त्रेऽस्मिन्यदुक्तं तन्न जातुचित् ॥ ५१ ॥ अर्थ – लोक में यह परिपाटी है कि संसारीजन दुःखमें दुःखको बढानेवाली क्रियाओं को ही अधिक करते हैं । सुखकी हालत में सुखको बढानेवाली क्रियाओं को ही करते हैं। जैनागम में ऐसे समय में जिन कर्तव्यों का पालन करनेके लिए आदेश दिया है उसका पालन कोई नहीं करते हैं यह खेद की बात है ॥ ५१ ॥ २५
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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