SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ दानशासनम् - निर्लोभत्वमलोमताप्युपशमोत्कर्षः क्षमा सर्वदा ॥ . द्रव्यत्यागविधौ न नास्तिवचनं शक्तिस्तु सप्तोदिताः ॥६॥ अर्थ-अस्तिक्य बुद्धीको श्रद्धा कहते हैं, गुरुके आगमनसे होनेवाले आनंदको संतोष कहते हैं, गुरुसेवाकी अभिलाषाको भक्ति कहते हैं । दानविधिमें जो प्रवीणता है उसे विज्ञान कहते हैं । दानके लिये द्रव्यके व्यय करनेमें लोभ न करनेको अलोभत्व कहते हैं । कषायोंके उत्कर्षके उपशमको क्षमा कहते हैं, द्रव्यके त्याग करने में सदा उत्साह व उभंगको शक्ति कहते हैं । इस प्रकार दाताके ये सप्तगुण हैं ॥ ६॥ आस्तिक्यमतिः पात्रेष्वविकळेषु स्यादानेन फलमुत्तमं । निश्चितास्तित्वसदबुद्धिरास्तिक्यमनिरीरिता ॥ ७ ॥ ____ अर्थ-उत्तम पात्रोंको उत्तम दान देनेसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है एवं स्वर्ग नरक, पुण्य पाप, बंध मोक्ष व इह पर लोक सब मौजूद है, इस प्रकारकी आस्तिक्यबुद्धिको अस्तिक्यमति या श्रद्धा कहते + श्रद्धागुण. पापोच्चयं मम निवारयितुं समर्थ हंतुं दरिद्रमिदमाशु समर्थमेव । दातुं सुपुण्यमजडं रतिरद्वितीया श्रदेति तत्र मुनयः खलु तां वदंति ॥ ८ ॥ अर्थ-यह पात्र मेरे पापसमूहको नाश करने के लिए सर्वथा समर्थ है और मेरी दरिद्रताको नष्ट करनेके लिए भी समर्थ है, एवं मुझे + वित्तरागो भवेद्यस्य पात्रं लब्धं मयाधुना । पुण्यवानहमेवेति स श्रद्धावानिहोच्यते ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy