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________________ दानशासनम् - मंत्रीवाशुचिरब्धिवाडव इव श्रीग्गिर्ववत् । वृत्तध्यानदवाग्निकल्लसति दुष्कर्माटवीमेघवत् १७६।। अर्थ-जिस प्रकार अश्वत्थकी लकडीमें आग जल्दी लग जाती है इसी प्रकार क्रोध भी जल्दी कुपित होजाता है । वायु जिस प्रकार पित्तको नष्ट करता है उसी प्रकार क्रोध पुण्यको नष्ट करता है। नित्य धूवा उत्पन्न करनेवाले अग्निके समान सदा पापको उत्पन्न करता है । मिथ्यात्व भूतके द्वारा आकृष्ट मंत्रीके समान मिथ्यात्वको उत्पन्न करता है, समुद्र के बीचमें रहनेवाला बडवाग्निके समान है, दर्शनरूपी पर्वतको तोडनेके लिए पत्रके समान है । चारित्र व ध्यानको जलानेके लिए दवाग्निके समान हे । दुष्कर्मरूपी जंगलकी वृद्धि के लिए बरसात के समान है ॥ ७६ ॥ चित्रं क्रोधहुताशनो तनुरयं निश्शेषलोकाशया-।. नाविश्याविचलो जवादय भवनकोऽप्यनेकात्मकः ॥ पीत्वा धर्मघृतं निनार्जितमिदं पुष्णाति दक्षः सतां । चेतःक्लेशकरस्ततोऽभवदयं लोकोऽप्यपुण्यक्रियः ॥७७॥ अर्थ-यह आश्चर्यकी बात है कि यह क्रोधरूपी अग्निकण संपूर्ण लोकमें प्राणियों के मनमें प्रविष्ट होकर यह एक होनेपर भी अनेक विकाररूप होजाता है। तथा धर्मात्माओंके द्वारा कमाये हुए पुण्य घृतको पीकर और ज्यादा प्रज्वलित होता है और उन सज्जनों के चित्तमें संक्लेश बढाता है । ऐसा जब संक्लेश बढता है तो लोकमें भी अन्याय, पाप आदि पापक्रियायें बढती हैं ॥ ७७ ॥ क्रुध्व्याघ्रं क्षुधितं यदातिकुपितं संस्थाप्य कुर्वति ये । ज्ञानक्षांतितपोजपाननुदिनं तस्यैव संपुष्टये ॥ क्षांत्य भश्च तपाक्षुधाभवदहो ज्ञानं स्तवोऽप्यामिषम् । तेषां क्रोधसमन्वितांचिततपाक्लेशाय पापाय च ॥७८॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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