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________________ पात्रभेदाधिकार: - - . अर्थ- क्रोधरूपी व्याघ्र जब क्षुधित व अत्यंत कुपित हो जाता है तब उस व्याघ्र के काममें मुनियोंका कमाया हुआ ज्ञान, क्षमा, तप, जप आदि आजाते हैं। क्रोधी मुनि इन बातोंकी कमाई उस व्याघ्रकी पुष्टि के लिये ही करते हैं । क्षमा पानी है । तप उसके लिये भूख है । ज्ञान व स्तुति यह मां है। विशेष क्या ? क्रोधी मुनियोंका तप क्लेश व पापकेलिये होता है ॥ ७८ ॥ क्रोधोङ्गष्वपि कंपनं हृदि दृशो राग मनोविभ्रमं । सत्पुण्यापलसर्वनीतिपदवीनिष्णातबुद्धिक्षयं ॥ तृष्णावृद्धिमधैर्यतामपधने पित्तज्वरात्युष्णतां । निंदामिंद्रियतापमेष न च भी कांतो विपत्तिं सदा ॥७९॥ अर्थ-क्रोध शरीरमें व हृदयमें कंप उस्पन्न करता है, आंखोंको लाल करता है, मनमें विभ्रम होता है । शुभ पुण्यको कमानमें व सर्वनीति मार्ग व अधिकारमें कुशल व्यक्तिकी बुद्धिको भी क्षीण करता है। लोभकी वृद्धि करता है । अधैर्यको बढाता है। जिस प्रकार कि गर्मियोंके दिनमें पित्तज्वर अत्यंत दाह उत्पन्न करता है । लोकमें क्रोधीकी निंदा होती है। इंद्रियों के विषयमें संताप रहता है । अनेक प्रकार की विपत्ति को उत्पन्न करता है। इसलिए बुद्धिमानोंको यह क्रोध सदा वl दृष्ट्वैकालयसंभवं हुतवहं मूढा हरंति क्षणात् । प्रज्ञा दुष्कृतभीरवाऽपि सहसा ग्राम दहति स्फुट ।। दोष कालभवं सुदुर्द्धरमिम क्षतुं समर्थाश्च के । सर्वे कालजदोषजाळपतिताः कुर्वति कि मंगलं ॥८०॥ अर्थ-कोई अज्ञानी किसी घरमें अग्निको देखकर उसे अपहरण करते हैं, तो बुद्धिमान् पापभीर होनेपर भी क्रोधसे बदला लेने के लिए उस ग्राम को ही जला डालते हैं । यह अत्यंत कठिन कालदोष है।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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