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________________ पात्रभेदाधिकारः घ्नंत्यद्यापि पुरोऽपि तत्फलमही जैनेष्विदं वर्तते ॥ क्रोधी हंति दृशं चितं सचरितं कोपो न तात्रयं ॥७॥ अर्थ---भवांतरसे या दीर्घकालसे आये हुए कोपको क्रोध कहते हैं । और उत्पन्न हुए क्षणमें ही नाश होनेवालेको कोप कहते हैं । इनमेंसे क्रोधके कारणसे मधुपिंगल नामक मुनीश्वरने सद्धर्मका नाश किया एवं उसके अनुयायियोंने भी धर्मध्वंस किया । आज भी मधुपिंगलके अनुयायी धर्मनाशके लिए उतारू रहते हैं । यह सब क्रोध का फल है । जिन जैनियोंमें यह क्रोध रहता है उनका दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय नष्ट होता है और कोप रत्नत्रय का नाशक नहीं है ॥ ७४ ॥ सर्वक्लेशकरो यथोद्भवति ये जैनास्त इच्छाकृति । भीत्वा वाह स एतदुत्तमशमं कुर्वत्यलं ते पुरा ।। क्रुद्ध तस्य सहायिनोऽत्र सकलाः क्रूरा भवंति ध्रुवं । ग्रैष्मैयाग्निमवेक्ष्य कक्षमखिलाः प्लोष्यंति शैले यथा ॥ अर्थ-पूर्वकालमें यदि किसीको वह दुःखकर क्रोध उत्पन्न होता था तो बाकीके जैनी पापके भयसे उसी समय उस क्रोधीके हृदयमें संतोष हो और वह क्षमा धारण करें इस प्रकारके उपाय करते थे। किसीको भी एक दूसरेका अहित होनेमें भानंद नहीं होता था। परंतु आज कलके जैनी यदि किसीको क्रोध आवे तो उसे और भी क्रूर बनने के लिये सहायक बनते हैं । जिस प्रकार कि ग्रीष्म कालमें यदि पर्वत में कोई अग्नि लगे तो सब हिंसातुर होकर उसमें जंगलके जंगलको जलाते हैं ॥ ७५ ॥ क्रोधोऽश्वत्थवदग्निकृत्पवनवत् पित्तापहृत्पुण्यहृत् । नित्यं धूमकृदग्निवदुरितकृन्मिथ्याग्रहाकृष्टिकृत् ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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