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________________ १३२ दानशासनम् गृहिणीहस्तपक्वान्ने दास्या दत्ते न दोषदं । धात्र्या हि रक्षिते राजपुत्रे धात्रीसुतो न च ॥ २० ॥ अर्थ- - पत्नी के द्वारा पकाया हुआ आहार यदि दासी देवें तो वह -- उतना दोषकर नहीं है । जिसप्रकार कि धाईके द्वारा पाला गया राजपुत्र धाईका पुत्र नहीं है राजपुत्र हां है ॥ २० ॥ प्रशस्तदान. गेहभाण्डार्थयोगांगसंशुध्या दीयतेऽत्र यत् । तदेव दानं कल्याण मंगलं भवनाशनम् ॥ २१ ॥ . अथ- -घर, बरतन, अन्नवस्त्रादिक, मन वचन काय संबंधी क्रिया, शरीरावयव इन सब बातोंकी शुद्धिसे जो दान दिया जाता है वही दान कल्याण करनेवाला है । मंगल है और संसारनाशके लिये कारण है ॥ २१ ॥ हितं मितं पकमपीक्षणप्रिय सुगंधि जिहाप्रियहव्यमन्नम् । अनंधकारे सुवितानरम्ये- प्यधूमगेहे मुनये च दद्यात् ॥ अर्थ —— जीवजंतु आदि पतनका भय जहां न हो ऐसे सूर्य के प्रकाशयुक्त, अंधकाररहित एवं धूमरद्दित प्रशस्त घर में मुनियोंके शरीर को दित, मित, योग्य रीति से पका हुआ, देखने में भी अच्छा, सुगंध, स्वादिष्ट मनोहर आहार गृहस्थ मुनियोंको दानमें देवें । कुशल गृहस्थ स्वयं इन बातोंका ख्याल रखें ॥ २२ ॥ कृषीवलकृत क्रियाभिरभिवर्द्धते या कृतिः । स्तयेव सुकृतं प्रजागुरुरयांनृपः सैनिकं ॥ धार्मिक कृतैर्गुणवविधोपचारैर्गुरौं । वृषश्च सुकृतं प्रजागुरुरयोनृपः सैनिकं ॥ २३ ॥ अर्थ- -किसान खेतकी वृद्धि के लिये जिन २ क्रियावों को करता -
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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