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________________ १२२ दानशासनम् साधुप्रत्तवचःशरीरहृदयाशेषप्रसादं विधा-। शुद्धिस्त्वाहतिशुद्धिमेव विमला तेभ्यो लभंते श्रियः ॥१८॥ अर्थ- पूजा करने के बाद पंचांगप्रणाम करें । एवं मन वचन कायको शुद्धिसे मुनिजनोंका स्तोत्र व स्मरण करें। साधुवोंको देनेवाले आहारदानमें मन-वचन-कायकी शुद्धि प्रकट करें । एवं आहार शुद्धिको प्रकट करें । इस प्रकार नवविध उपचार शुद्धहृदय [ निष्कपटभाव ] से जो करते हैं उनको सर्व प्रकारकी संपत्ति प्राप्त होती आहारदोष. बीजफलकंदमूलं कण्डनशंबूकमस्थिनखरांमात्रं ॥ जंत्वजिनपूयमांस अवंति दोषाश्चतुर्दशाहारे ॥ १९ ॥ अर्थ-अभक्ष्य बीज, फल, कंद, मूल, भूसा, शंख, हड्डी, नाखून, रोम, रक्त, द्वींद्रियादिक प्राणी, चर्म, पूव, मांस ये चौदह आहार में त्याज्य हैं, दोष हैं ॥ १९ ॥ आहार शुद्धि. दातृगृहसंस्कृताहतिममकां गृह्णन्ति योगिनो मत्वा ॥ रजक सुधौत वस्त्रं सौतकमिव योग्य पुरुषसेव्यं स्यात् ॥ अर्थ-जिस प्रकार रजस्वला स्त्रीके द्वारा पहने हुए वस्त्र यदि धोबी अच्छी तरह धोकर लाता है तो उत्तम पुरुषोंके द्वारा सेव्य माना जाता है, उसी प्रकार अनेक संस्कारोंसे पवित्र दाता के घर में योगिगण आहार ग्रहण करते हैं अर्थात् आहार ग्रहण करनेकेलिये गृहसंस्कार की ही नहीं संस्कृत आहारकी भी जरूरत है ॥ २० ॥ सेवाफल. लक्ष्मी त्रिवर्गसंपत्तिं धियं भूतिं सरस्वतीम् ॥ शरीरसौष्टवं मेधां लभतेऽल्पप्रयासतः ।। २१ ॥ अर्थ---गुरुसेवा करने के अल्प श्रमसे यह मनुष्य धक्रियाकलाप
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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