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पात्रसेवाविधि
प्रतिग्रह. न दैन्यविध्वंसिनिधिद्रुधेनुका । यथा ददामो वयमित्युशंति ये ॥ इदं सुपात्रं सुकृतागतं न मे ।
त्यजामि नान्यस्य ददाम्यहं तथा ॥ १५ ॥ अर्थ--जिस प्रकार मनुष्यकी दरिद्रताका नाश करनेवाली कोई निधि, कल्पवृक्ष व कामधेनु के मिलनेपर हृष्ट होकर यह कहते हैं कि अब हम इसे किसीको नहीं देंगे, उसी प्रकार धार्मिक सज्जन अपने पुण्यसे अपने द्वारमें आये हुए पात्रोंको देखकर हर्षित होते हैं, और कहते हैं कि मैं अब इसे नहीं छोडूंगा और न दूसरोंके यहां जाने दूंगा। इस भक्तिविशेषसे जो आदर के साथ पात्रको अपने द्वारपर स्वागत किया जाता है उसीका नाम प्रतिग्रहण है ॥१५॥
उच्चासन. गत्वाभ्युत्थाय संवीक्ष्य सत्पात्रं गृहमेधिना ॥
दत्तमुच्चासनं तस्मै सून्नतासनमुच्यते ॥ १६ ॥ . अर्थ-धार्मिक गृहस्थ पात्रोंके आगमन को दूरसे देखकर भक्तिसे उठता है । फिर उनका प्रतिग्रहण कर उन्हे विराजनेको उच्च आसन देता है, यह दूसरा उपचार है ॥ १६ ॥
पाद्यपूजा. मुनिपादांबुजद्वंद्वक्षालनं पाद्यमीरितं ॥ . .
मुनिपादार्चनं यच्च सा पूजेत्यभिधीयते ॥ १७ ॥ अर्थ-उच्चासन देनेके बाद मुनीश्वरोके पादप्रक्षालन करनेको पाद्य कहते हैं । और उनकी पादपूजा करनेको पूजा कहते हैं ॥१७॥
. प्रणामादिचतुष्टय. पंचांगः प्रणतिः प्रणाम इति वाक्कायाशयैर्यत्कृतं । . स्तोत्रं सेवनमुत्तमं स्मरणमित्यार्या बुवंतीह ते ॥