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________________ पात्रसेवाविधि १२३ कारण संपत्ति, जिनधर्म प्रभावनाके साधन धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग संपत्ति, परमागमज्ञायकबुद्धि, जिनधर्माराधक भन्योंके पोषण के लिए ऐश्वर्य, जिनवाणी, देहसौंदर्य, एकपाठादिक कुशाग्रबुद्धि आदिको प्राप्त करता है ॥ २१ ॥ मोक्षफल. एतैरप्युपचारैर्ये तर्पयंति तपोभृतां ॥ सुखं स्वर्गस्य मोक्षस्य भंते ते क्रमेण च ॥ २२ ॥ अर्थ---उपर्युक्त नव प्रकारकी भक्तियोंसे युक्त होकर जो तपोनिधि मुनियोंको आहार देते हैं वे स्वर्गादिक सुखको प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं क्रमसे वे मोक्षसुखको प्राप्त करते हैं ॥ २२ ॥ मूढा नाघपरार्थलाभमनसः स्वार्थव्ययं कुर्वते । सर्वे स्वामिन एव पर्वसु सदा सेवाजनेभ्योऽपि च ॥ नीत्या तद्वदयं जनो न कुरुते व्यर्थव्ययं पापदं । पूर्वोपार्जितपुण्यपापमुखतोऽधामुत्रिकाथै मनाक् ॥२३॥ अर्थ-आज भी अज्ञानी किसान लोग मालिकोंसे हम लोगोंको कुछ लाभ हो इस इच्छासे उनको अनेक प्रकारकी भेंट ले जाकर देते हैं । पर्व-दिनोंमें अपने स्वामियोंके पास यहांतक कि अपने स्वामिके सेवकोंक पास भी जाकर उनको अनेक भेंट वगैरह अर्पण कर उनका आदर करते हैं । सचमुच में उनको अज्ञानी नहीं कहना चाहिये । क्यों कि ऐसा करनेसे उनके स्वामी भी समयपर उनको उपकार करते हैं। इसलिये यह उनका कर्तव्य है । इसी प्रकार मोक्षपुरुषार्थ को जो प्राप्त करना चाहते हैं वे भी अपने द्रव्यके कुछ अंशको व्यय करके श्रीभगवान् जिनेंद्रकी उपासना आदि करें । पर्वदिनोंमें विशेषतया भगवान् जिनेंद्र एवं उनके सेव क यक्षयक्षियोंकी आराधना कर तथा अनेक प्रकारसे धर्मप्रभावना
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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