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________________ १२० दानशासनम् जिस प्रकार वर्णसंकर स्पष्ट दोष पाया जाता है। उन समस्त दोषोंसे रहित द्रव्यको ही दानमें देना चाहिए ॥ ११ ॥ स्पृष्ट दोष. विद्यायत्तकुलार्तमानबुधतावृत्तादिकं चेटिका । वेश्या हंति परांगना त्रिभुवनज्ञानाशयक्षोभणं ॥ कुर्याच्छ्रीवलजीवितार्थविषयग्रंथादिवस्तुक्षयं । । यत्संगात्परजन्मनाह नरके पातो भवेदंजसा ॥ १२॥ अर्थ---नीचोंके संसर्गसे मनुष्यको विद्या, बुद्धि, कुल आदिका मद, दासत्व, वृत्तिक्षय, संपत्ति, शक्ति, जीवन, भोग व परिग्रह आदिका क्षय होता है । दूसरोंको उससे कष्ट पहुंचता है । इतना ही नहीं परजन्ममें वह नरकमें जाता है ॥ १२ ॥ पात्र. राजानः पालयंतीव निजधर्माश्रितं बलं ॥ निजधर्माश्रितान्सर्वान् दययावंति धार्मिकाः ॥ १३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार राजा अपने आश्रित सैन्यको हर तरहसे रक्षण करते हैं, उसी प्रकार धार्मिक सज्जनोंको उचित है कि वे अपने आश्रित पात्रोंको दयाबुद्धिसे रक्षण करें ॥ १३ ॥ नवधा भक्ति. प्रतिग्राहोच्चासनपाद्यपूजाः। प्रणामवाक्कायमनःप्रसादाः ॥ विधाविशुद्धिश्च नवोपचाराः । कार्या मुनीनां गृहमेधिभिश्च ॥ १४ ॥ । . अर्थ-पडिगाहना, उच्च आसन देना, पादप्रक्षालन, पूजा, प्रणाम, मनःशुद्धि, वचन शुद्धि, काराशुद्धि, तथा आहारशुद्धि इस प्रकार उत्तम पात्रों का नव प्रकारसे गृहस्थ सत्कार करें ॥ १४ ॥ ..
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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