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________________ पात्रसेवाविधि .अर्थ--धार्मिक सज्जनोंको उचित है कि वे धर्म, दान व भोजनमें एवं लौकिक कार्यमें शास्त्रक्रमको उल्लंघन न कर प्रवृत्ति करें। शाबक्रमसे प्रवृत्ति करनेवाला ही सम्यग्दृष्टि है ॥ ८ ॥ विधि गुणक्रम. यः सर्वकालदेशेषु यद्यदाश्रित्य वर्तनं ॥ वर्तते सदनुक्रम्य हेयं हित्वा सर्वथा ॥ ९ ॥ हातुं न शक्यं यत्कर्म न वयं योगदोषवत् । सद्भक्तिरकषायः स्यात् सुकृति व दोषभाक् ॥ १० ॥ अर्थ-जिनधर्मभक्त, मंदकषायी, धार्मिक सज्जनको उचित है कि वे सर्व देश व कालमें जो धर्मकेलिये अनुकूल है, देश व कालके लिये अनुकूल है उसे अनुकरण कर वर्तन करें। जो बात हेय हो उसे जरूर छोडे, और जो कार्य मन वचन कायके दोषके समान छोडनेको अशक्य हो उसे न छोडें, परंतु यह ध्यान में रहें कि वह धर्मके साधन हो, जिस प्रकार भक्तिके लिये अष्टद्रव्य, आत्मसिद्धि के लिये देह, देहरक्षणकेलिये आहार, गमनकेलिये वाहन, धान्यकेलिये खेत, धर्मवृद्धि के लिये दोषाच्छादन आदि बातें निंद्य नहीं हैं, उसी प्रकार धर्मसाधन भी ग्रहण करें, सर्वथा छोड नहीं सके तो धार्मिक जनोंकेलिये दोषास्पद नहीं है, प्रत्युत उससे पुण्यबंध होता है |॥ ९॥ १० ॥ द्रव्य लक्षण. पादगुदशौचशेषं ताटाकं साधुपेयमंभः किं वा । क्रमुकगुडशर्करादि च वर्णानां संकरोऽस्ति कर्णाटादौ ॥११॥ अर्थ---जिस पानीमें पाद, गुद, शौच आदिकी शुद्धि मनुष्य करते हों, वह पानी साधुवोंको पीने योग्य कभी हो सकता है क्या ? नीच जाति के लोगोके द्वारा बनाए हुए गुड, शक्कर, दूध, दही आदि साधुवोंको आहारमें देने योग्य है क्या ? कभी नहीं ? कर्णाटादि देशमें
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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