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________________ ११८ दानशासनम् पित्त, अर्थ - जांगल, अनूप, साधारण आदि देशके अनुसार प्रवृत्ति करना वात, पित्त, कफ आदि दोषोंके उपशमके लिए कारण है । इसलिए दाताको उचित है कि वे देशोंके भेदको जानकर वात, कफ आदिक दोषोंको एवं तदुत्पन्न रोगोंको दूर करनेवाले आहार दान में देवें ॥ ४ ॥ कालगुण. काळ संक्रुद्ध दोषोत्थ रोगोपशम कारणम् ॥ काळदोषहराहारो देयस्तत्काल वेदिभिः ॥ ५ ॥ अर्थ - शीत, उष्ण और वर्षाकालके अनुसार आहारप्रवृत्ति रखें तो वातपित्तादिसे उत्पन्न रोग उपशांत होते हैं । इसलिए उत्तम दातावों को उचित है कि वे कालक्रमको जानकर दोषहर आहारको दान में देवें ॥ ५ ॥ उत्तमपात्रदान कालक्रम. कंगुचणजीर हळकुळमेथी शाल्यादिवपन समय स्त्वेकः ॥ उत्तमपात्रे क्षेत्रे दातॄणामन्नदानविधिरेकः स्यात् ॥ ६ ॥ अर्थ - जिस प्रकार चना, जीरा, कुलथी, मेथी, धान आदिको बोनेका समय एक ही हुआ करता है, उसी प्रकार उत्तम पात्रोंकी आहारविधि भी एक ही है । और एक ही काल है ॥ ६ ॥ मध्यमपात्रदान कालक्रम. गोधूमबल्लतुबरी जोनळतिळ मुख्यवपनसमयौ च द्वौ । मध्यमपात्रे क्षेत्रे दातॄणामन्नदानसमयी स्याताम् ॥ ७ ॥ अर्थ - जिसप्रकार गेहूं, पावठा, तूअर, ज्वार, तिळ, आदि धान्यों को बोने के समय दो हैं, इसी प्रकार मध्यम पात्रोंको आहार दोन देनेके समय दो हैं ॥ ७ ॥ शास्त्रक्रम. शास्त्रक्रममनुल्लंघ्य संप्रवर्तेत धार्मिकः ॥ धर्मे दाने च भुक्तौ च स क्रमःसन्मुहक बुधः ॥ ८ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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