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________________ पात्रसेवाविधि पात्रसेवाविधिः। प्रणम्य जिनपादाब्जयुगं त्रैलोक्यमंगलं ॥ . वक्ष्ये जिनमुनींद्रादिपात्रसेवात्पर्क विधि ॥ १ ॥ अर्थ-तीन लोककेलिये मंगलस्वरूप ऐसे श्रीजिनेंद्रभगवंतके चरणकमलको नमस्कार कर जिनमुनींद्र आदि पात्रोंकी सेवाविधि इस प्रकरणसे कहेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा आचार्यपरमेष्ठी करते हैं ॥१॥ दानविधिः नवोपचारकरणं यन्मुनेरादरेण तं ॥ संतस्सद्विधिमाख्याति धान्यानविधिर्यथा ॥ २ ॥ __ अर्थ-जिस प्रकार आहारदानके लिए साधनभूत धान्यादिकोंके प्राप्ति के लिए अनेक प्रकारकी विधि करनी पडती है अथवा खेतमें धान्यकी उत्पत्तिके लिए अनेक प्रकारकी क्रिया करनी पड़ती है। उसी प्रकार पात्रको आदरके साथ नव प्रकारसे उपचार करना उसे सज्जन लोग सद्विधि कहते हैं ॥ २ ॥ . दानक्रम. . देशकालागमविधि द्रव्यं पात्रक्रमो यथा । दान देयं तथा दात्रा क्षेत्रे कृष्यधिपो यथा ॥ ३ ॥ . अर्थ-जिस प्रकार किसान खेती करते समय देश, काल, आगम, विधि आदि जानकर बीजको बोता है, उसी प्रकार योग्य देश, उचित कालमें, आगमोक्त विधिको ध्यानमें रखकर संस्कृत द्रव्यको उत्तम पात्र को दान देवें । सचमुचमें वही उत्तम दाता है ॥ ३ ॥ देशगुण. देशप्रवृत्तिसंक्रुद्धदोषोपशमकारणम् ॥ दोषरोगहराहारो देयस्त देशवेदिभिः ॥ ४ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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