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________________ चतुर्विधदाननिरूपण भण्डवचन, परनिंदा, व धर्मनिंदा आदि दुष्कृत्य होते रहते हों उस राजाकी संपत्ति समूल नष्ट होजाती हैं ॥ १८९॥ यत्राट्टहासो दुष्कर्म जिनधर्मस्य दूषणं । साधुनिंदा भवेत्सर्व सहमूलं विनश्यति ॥ १९० ॥ अर्थ-जिस राजाके आस्थानमें सदाकाल अट्टहास होता रहता हो, दुष्कर्मका बाजार लग रहा हो, साधुवोंकी निंदा होती रहती हो उस राजाकी संपत्ति नष्ट हो जाती है । राजा धार्मिक हो तभी उसका राज्यशासन अटल रह सकता है ॥ १९० ॥ यत्रीत्कोचहरा भूपाः कायस्थाः पिशुना नराः। विश्वस्तास्तईतास्सर्व सहमूळ विनश्यति ॥ १९१ ।। अर्थ--जिस राजाके शासनमें लोग अल्पकार्यके लिए महत्वपूर्ण कार्योको बिगाडनेके लिए तैयार होते हैं, इधर उधर चुगली करके परस्पर झगडा करानेमें आनंद मानते हैं, अधिकारीवर्ग रिश्वत लेकर कार्य करता है, विश्वस्त ऐसे सज्जन लोग जहां सताये जाते हैं ऐसा राज्य समूल नष्ट होता है ॥ १९१ ॥ दृष्ट्वा न पश्यति बुधान्ब्रुवतः सदुक्ति । श्रुत्वा श्रुणोति स जडः कटु वाग्रहीव ॥ ज्ञात्वा हिताहितजनाननिशं न वेत्ति । लक्ष्मीमहाग्रहगृहीतजनो विभाति ॥ १९२ ॥ अर्थ-लक्ष्मीरूपी महाभूतसे गृहीत अज्ञानी व्यक्ति सज्जनोंको पहिले देखनेपर भी नहीं देखेके समान वर्ताव करते हैं, शास्त्रोंको सुननेपर भी अनसुनी कर देते हैं । अपने हित व अहितजनोंको जानकर भी नहीं जानने के समान करते हैं, अनेक प्रकार भूतादि दुष्ट ग्रहोंसे गृहीत व्यक्तिके समान कटुवचनका उच्चारण करते हैं। इसलिये धनके मदसे मदोन्मत्त प्राणी ग्रहपीडितके समान ही हैं ॥१९२॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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