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________________ दानशासनम् aormann नेक्षते कलिसमयाश्रयानराः किम् । बोधंते कनकसमाश्रयात्पुनः ॥ मन्यते जनपसमाश्रयान किंचित् । कुर्वति त्रिमदयुता इमे न किं तत् ॥ १९३ ॥ अर्थ-मनुष्य कलिकालके आश्रयसे ही किसीको देखना नही चाहता है, किसीको धन कनक मिलजाय तो वह मदोन्मत्त होजाता है, किसीको राज्यसत्ता व अधिकार मिलनेपर मदोन्मत्त होता है। इनमें किसीको एक साथ दूसरा कुछ भी मिले तो उनके अनर्थका कोई पार नही, ऐसी अवस्थामें कलिकाल, कनक, राज्याश्रय ये तीनों मद एकजगह मिल जाय तो फिर वे क्या नहीं करेंगे ? सब कुछ अन्याय करनेको तैयार होंगे ॥ १९३ ॥ विघ्नः सद्यः फलति कृतिनामेव पुंसा कृतोऽयं । नीचस्पृष्टिः फलति कृतिनां सघ एवं द्विजानाम् ॥ श्वेडः सद्यः फलति मुखिना पन्नगस्येव नोऽत- । स्तस्माद्विघ्नं सुकृतिपुरुषो नैव कुर्यात्कदापि ॥१९४॥ अर्थ-जिसप्रकार दुष्ट सर्पके काटनेसे उसी समय विषोद्रेक होकर प्राणको अपाय पहुंचता है उसीप्रकार सत्पुरुषोंके मार्ग में विघ्न करनेसे उसका फल तत्क्षण मिलता है, नीचलोगोंके स्पर्शन ब्राम्हणोंको उसी समय फल देता है । इसलिये सज्जनोंको उचित है कि वे कभी सन्मार्गमें विघ्न नहीं करें ॥ १९४ ॥ आयुर्हति रुजां करोति रिपुभिश्चोरैर्मृति न्यक्कृतिम् । कारागारनिवेशनं निगल दुर्बधं सदा तद्धनं ।। सर्वार्थापति ततो विहरणं लोकेऽपि भिक्षाटनं । । दैन्योक्तिं विनति वधःस्थितिमहो चित्रं कृतागःफलं॥१९५ अर्थ-बहुत आश्चर्यकी बात है, राजद्रोह धर्मद्रोहकरके अर्जित
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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