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________________ दानशासनम् - अर्थ-जिनमंदिरके जीर्ण होनेपर उसे देखनेपर भी धनवान जैन उस से उपेक्षा करते हो, उसके उद्धारके लिये प्रयत्न नही करते हों तो उनका घर, धन, तेज, मान इतनाही नहीं प्राणादिका भी शीघ्र नाश होता है ॥ १८६ ॥ लेखयति यत्र यो ना सविकारांस्तस्य जिनमुनींद्रपतिमान् । नश्येद्धनमायुहमपि सह मूलं च वीक्ष्य हृष्टस्यापि ॥ १८७ ॥ अर्थ-जो मनुष्य जिनेंद्र व मुनींद्रोंके चित्रको [प्रतिमा] सविकार निर्माण कराता हो उसका धन, आयु, घर इत्यादि समूल नष्ट हो जाते हैं । इतना ही नहीं उन सविकार प्रतिमावोंको देखकर जो प्रसन्न होते हैं उनका भी धन आयु, घर इत्यादि समूल नष्ट होते हैं ॥ १८ ॥ राजा पुरा गैरवहारिणःस- । दीर्घायुरारोग्यसुखाग्निवृद्धाः ॥ सर्वे नृणां रौरवकारिणोऽद्य । . ध्वस्तायुरारोग्यसुखाग्नयः स्युः ॥ १८८ ॥ अर्थ- पूर्वकालमै राजा प्रजावोंके दु.खोंको दूर करनेमें सदा दत्त चित्त रहते थे इसलिये वे दीर्घायुषी, आरोग्यवान् , सुखी व स्वस्थ होते थे । पंचमकालके राजा प्रजावोंको हरतरह दुःख देनेमें ही अपने कर्तव्यको इतिश्री समझते हैं अतएव वे अल्पायु, रोगी, दुःखी व अस्वस्थ होते हैं । प्रजावोंके हितनिरत रहना यह राजाका कर्तव्य हैं ॥ १८८ ॥ यास्थाने सदा हासो भण्डोक्तिबहुगीवाक् ।। धर्मनिंदा भवेत्सर्व समूलं च विनश्यति ॥ १८९ ॥ अर्थ-जिस राजाके आस्थानमें ( दरबार ) सदा काल हास्य,
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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