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चतुर्विधदाननिरूपण
कंपो वमणि दुःपरीषहजयः स्याद्गद्गदत्वं गले । निःक्रोधो बुधता दया विनयता चित्रं मृदुत्वं शमः १६७ अर्थ-चोरी करना अत्यंत निकृष्ट कार्य है । यदि किसीने चोरी करते हुए देख लिया तो चोरका चित्त विकल हो जाता है, चित्तमें भ्रम उत्पन्न होजाता है । आंखो में अंधेरी आजाती है, दीनता धारण करनी पडती है, सारा शरीर प्रभाहीन होजाता है, मुख विरस हो जाता है, पैरोंमें निःशक्ति आजाती है, शरीर कंपने लग जाता है, अनेक प्रकारके कष्ट सहन करने पड़ते हैं, कंठ गद्द होजाता है, क्रोध छोडना पडता है, बुद्धिमत्ता आजाती है, दया भी उत्पन्न होती है, विनयशीलभी बनना पडता है, मार्दव एवं शांति भी धारण करना पडता है, आश्चर्य है ।। १६७ ॥
अनियतवृत्तं प्रथमे शिक्षककृतबाधने मुमुर्षुत्वं । चौर्यमपि चौर्यवर्जनमहो जना वर्जयेयुरिह तच्च ॥ १६८ अर्थ-चोरी करते समय चोरको बहुत अनियतवृत्ति करनी पडती है क्यों कि उसे यह डर होता है कि मुझे कोई देख न लेवें, यदि कहीं पकडा गया तो फिर राजकर्मचारियोंके द्वारा दिये गये दण्डसे उसे यह इच्छा होती है कि यदि मेरेको मरण आजाय तो अच्छा है । इस लिये सज्जन लोग ऐसी चोरी को छोडते हैं ॥१६८॥
'अर्थारागपदं सगुप्तिकुमुमं शांतिच्छदं संयम-। स्कंधं जीवचयाश्रयं वृषलसच्छाखं समित्यंकरं ॥ दृष्टिज्ञानफलं दौधितमिदं सद्धर्मवृक्षं जनाः । सर्वे नितिदं दहति मुनयस्तेनामिना मूढवत् ॥ १६९॥ १ विषयविरतिमूलं संयमोहामशाखं ॥
यमद्मशमपुष्पं ज्ञानलीलाफलाढ्यं ॥ विबुधजनशकुंतैः सेवितं धर्मवृक्षं ॥ दहति मुनिरपीह स्तेनतीघ्रानलेन ॥