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________________ ८८ दानशासनम् Arrr-hn-AAAAA. भूनाथेऽदृशि सेवकः सुगहिग्राही यथा जायते ॥ भृत्येऽदृश्यपि भूमिपो यदि सुदृचाक्षोक्षवद्भूतले ।। भृत्योत्सर्जनगोपनोक्तिविगमे भूपोऽग्निकार्पासव- । इत्यस्योपभृतेर्लये भवभवे भृत्योप्य पुण्यक्रियः ॥ १६४॥ अर्थ-राजा यदि अविश्वासी हो उसका सेवक यदि विश्वासी हो तो वह मंत्रतंत्रसे अपरिचित सेवक गारुडीने पकडे हुए सर्पके समान होता है। राजा यदि विश्वासी हो तो भरी हुई गाडी को बांधा हुआ बैल के समान हो जाता है । सेवकों को रक्षण करने का वचन देकर फिर यदि उन की रक्षा राजा नहीं करता है तो उस राजा की दशा वही होती है जैसी कि आग लगी रुईकी। वह राजा इस प्रकार के पापोंसे भवभवमें पापी होकर उत्पन्न होता है ॥ १६१ ॥ परद्रव्यापहारित्वादरिद्रो भवति ध्रुवं । तस्माद्दाता परद्रव्यं न गृह्णाति कदाचन ॥ १६५ ॥ अर्थ-परद्रव्य को अपहरण करने से मनुष्य नियम से दरिद्री बनता है । इस लिए दाता को उचित है कि वह परद्रव्य को कभी प्रहण न करें ॥ १६५ ॥ स्थापितागतवित्तघ्नं देवस्वाम्यर्थवचनं । तेनेहामुत्र निःस्वःस्याद्ग्रंथः स्वार्थापहृत्सदा ॥ १६६ ॥ अर्थ-जो मनुष्य देवद्रव्य और स्वामिद्रव्य को अपहरण करता है उस के पहिले के एवं आये हुए दोनों प्रकार के द्रव्य नष्ट होते हैं। एवं वह इस भव में एवं परभव में बहुपरिग्रही और दरिद्री हो जाता है। एवं उस का धन सदा दूर रोंसे अपहृत होता है ॥ १६६ ॥ चौर्य दृष्टमिदं परैर्विकलता चित्ते भ्रमोऽक्ष्ण्यंधता। दैन्यं निःप्रभता मुखे विरसता निस्त्राणता पादयोः ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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