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________________ दानशासनम् अर्थ-यह जिनधर्म एक महान् वृक्षके समान है, विषयविरति ही उस वृक्षकी जड है, गप्तित्रय उस का पुष्प है, शांतिरूपी पत्ते हैं, संयमरूपी स्कंध है, धर्मरूपी शाखायें हैं । समिति ही उसका अंकुर है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही जिस का फल है । दयारूपी पानी से वृद्धिंगत है, अनेक जीवों को आश्रय देने वाला है, यहांतक कि मोक्ष को भी प्रदान करनेवाला है, ऐसे धर्मरूपी महावृक्ष को अज्ञानी जन मुनि होकर भी चोरी रूपी अग्नि से जलाते हैं। खेद है ॥ १६९॥ मानहानिरपि वंचके सती। पत्युरर्थयुगहानिरीषदाः [१] || वंचको यदि पतिश्च तस्य यः । सर्वहानिरनिशं भवेत्प्रभोः ॥ १७० ॥ अर्थ-लोक में यदि स्त्री पति को धोका देकर मायाचार करती है उस अवस्था में पतिपत्नी दोनोंका अपमान होता है । एवं धनका नाश हो जाता है । यदि पति पत्नी को धोका देकर अनीतिमार्ग में प्रवृत्ति करता है उस अवस्था में उस की सर्वहानि हो जाती है ।।. परस्त्रीगुरुदेवार्थ वृध्द्याधर्थ च सर्वदा ॥. न गृहीयान्न दद्याच्च सर्वनाशकरान्बुधः ॥ १७१॥ अर्थ-बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि वह अपने वृद्धि के लिए परस्त्री को लेकर कभी दूसरोंको बेचने आदि कुकृत्य न करें । गुरुद्रव्य व देवद्रव्य को अपहरण कर व्याज आदि कमाने की कुचेष्टा नहीं करें । एवं स्वयं ऐसे कृत्य न करें और न दूसरों को ऐसे द्रव्य देकर कुमार्ग की प्रवृत्ति करें ! इस से उस का सर्वनाश होता है ।। ध्वंसयति राजधर्मो बाह्यं द्रव्यं च सागसां सकलं । दैवो धयों बाह्यद्रव्याण्यपि चांतरंगिकं पुण्यं ॥१७२॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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