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________________ चतुर्विधदाननिरूपण येः सेवकानां धनमाददाति । यो नचिकृत्यार्जितमन्यवित्तं ॥ कुर्याद्धनं यत्खलु तस्य तत्त- । न्नी चोपसेवार्जितजीवनं च ॥ १६१ ॥ I अर्थ — जो मनुष्य अपने सेवकों के धन को अपहरण करता है, एवं नीचकृत्योंसे कमाया हुआ वेश्या आदिके धनको ग्रहण करता है वह उसके फलसे इस भवमें एवं परभवमें नीचगतिमें जाकर जन्म लेता है एवं नीचोंकी सेवा करनेके जीवन को पाता है ॥ १६२॥ भृत्येष्वय भावहिंसातुरा ये । स्वेष्वन्येषु प्रीतिमाकुर्वते ते ॥ जन्मन्यग्रे स्वेषु भृत्येषु चैको । भृत्यो भूत्वैकजन्मन्यो स्यात् ॥ १६२ ॥ • فه अर्थ – जो स्वामी अपने भावों में मायाचार कर अपने सेवकों में ईर्षाभाव एवं दूसरोंके सेवकोंमें प्रीति करता हो वह अपने पापके फलसे आगे. एक जन्ममें अपने एक २ सेवकका वह सेवक होकर उत्पन्न होता है आश्चर्य है ॥ १६२ ॥ कृतषळेशेषु भृत्येषु नोपकुर्वेति ये नृपाः ॥ जन्मांतरेऽधिश्रीणां तु तेषां ते गृहकिंकराः ॥ १६३ ॥ अर्थ - जो राजा अपने श्रम करनेवाले सेवकोंको उपकार नहीं करते हैं वे आगे के जन्म में उन्ही सेवकोंके सेवक बनते हैं जिन्होने अपने पुण्य से अधिक भाग्यको प्राप्त किया है । १. नृपैर्दत्तार्थ भूकन्या सर्ववस्तुसमानता । न प्राय आददानास्ते तैः सर्वेपि निराकृताः ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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