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________________ ८६ दानशासनम् स्वामिद्रव्यं स्वामितामेव कुर्या - 1 द्धृत्यद्रव्यं भृत्यतां स्वामिवित्तं ॥ भृत्यग्राह्यं भृत्यवित्तं न जातु । ग्राह्यं योगः स्वामिना भृत्यकारि ॥ १५९ ॥ अर्थ - सेवक स्वामिसेवामें तत्पर होकर परिश्रम से जो धन कमाता है उसे स्वामिद्रव्य कहते हैं । ऐसा ही धन सेवक के ग्रहण करने योग्य है, ऐसे धनोंके उपार्जन से सेवक धनवान् बनकर अनेक सेवकों का स्वामी बनता है । परंतु ऐसा न कर जो किसी तरह आलस्य से काम करते हैं वे भृत्यद्रव्यके कमानेवाले कहलाते हैं, ऐसे द्रव्यसे सेवक ही बना रहता है। वह यथेष्ट धनार्जन नहीं कर सकता है | स्वामीका धन सेवक ले सकता है | परंतु भूलकर भी स्वामी सेवक के धन को ग्रहण न करें। यदि स्वामी सेवक के धन को ग्रहण करता है तो वह स्वयं सेवक बन जाता है ॥ १५९ ॥ 1 कृत्वा नित्यनिकृष्टकर्मकरुणामुत्पाद्यतेनाशया । पत्युर्वित्तमुपार्जितं च यदहो येनैव पापात्मना || तद्वित्तं प्रभुणा न दत्तमथवा व्याजाद्वह्लादाहृतं । तं नाथं कुरुते निजेशसदृशं तद्वित्यजेत्तद्धनं ॥ १६० ॥ अर्थ -- जो सेवक पहिले बहुत निकृष्ट २ सेवायोके द्वारा मालिक के हृदय में करुणा उत्पन्न करता है एवं उन से येथेष्ट धन लेता है । उस के बाद उस के हृदय में पाप आकर अपने स्वार्माके द्वारा नहीं दिया हुआ धनको भी किसी तरह धोका देकर लेने लगता है । उस स्वामी श्री ऐसी बातों से घटेगी नहीं प्रयुतः वह अपने स्वामी के बराबर बन जायगा । परंतु उस सेवक को ऐसे कार्योंसे हानियां पहुंचेगी, इसलिए ऐसे धन को अपहरण नहीं करना चाहिए ।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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