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________________ ___ अर्थः अरहन्त आदि चार शरणों को प्राप्त हुआ मैं उनके प्रति तथा अन्य के प्रति किये गये दुष्कृत की गर्दा निन्दा करता हूँ। वह इस प्रकार है - अब तक अरहन्त देवों, सिद्ध भगवन्तों,आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी तथा अन्य माननीय, पूजनीय (साधर्मिक आदि) धर्मपात्रों के प्रति तथा अनेक जन्मों के माता-पिताओं, बन्धुओं, (सगे-सम्बन्धिओं) मित्रों, उपकारियों के प्रति तथा मोक्षमार्ग में स्थित या कुमार्ग में स्थित सभी जीवों के प्रति ज्ञान-दर्शन चारित्र रूपी मोक्ष मार्ग में साधनभूत (उपकारक) जिनबिंब, पुस्तक, रजोहरणादि के प्रति या मोक्षमार्ग में असाधनभूत (अनुपकारक) वस्तुओं के प्रति मैंने जो भी न करने योग्य, अवांछनीय, पापरूप एवं पाप की परम्परा का जनक अनुचित आचरण किया हो, चाहे वह सूक्ष्म (अल्प) हो या स्थूल (बहुत) हो मन से या वचन से या काया से स्वयं किया हो या दूसरे से करवाया हो या करने का अनुमोदन किया हो, राग से द्वेष से या मोह से प्रेरित होकर, इस जन्म में या दूसरे जन्मों में किया हो, वह सब अब मेरे लिए गर्हणीय निन्दनीय है, दुष्कृत अधर्म रूप है, त्याज्य है, ऐसा मैंने कल्याण मित्र (मेरी आत्मा का कल्याण चाहने वाले-आत्म कल्याण में प्रवृत्त करने वाले) गुरु भगवन्तों के वचन से जाना हैं और 'आपका वचन सत्य है' इस प्रकार से वे वचन मुझे श्रद्धापूर्वक रुचिकर भी हुए हैं। अतएव मैं अरिहन्त और सिद्ध भगवन्तों के सामने अपने उस पापाचार की गर्दी करता हूँ वह दुष्कृत अधर्मरूप होने से उसकी निन्दा करता हूँ, और उसका त्याग करता हूँ। अतएव मेरा वह पाप मिथ्या हो, मेरा वह पाप मिथ्या हो, मेरा वह पाप मिथ्या हो ॥१०॥ मूल - होउ मे एसा सम्म गरिहा। होउ मे अकरणनियमो। बहुमयं ममेअंति इच्छामि अणुसहिँ अरहंताणं भगवंताणं गुरुणं कल्लाणमित्ताणं ति॥११॥ ____ अर्थः मेरी यह दुष्कृत गर्दा सच्ची हो - हार्दिक हो।आगे दुष्कृत न करने का मुझे नियम हो। चतुः शरणगमन और दुष्कृत निन्दा मुझे अत्यन्त रुचिकर है, अतएव मैं अरहन्त भगवन्तोंकी और कल्याणपथ में प्रवृत्त करने वाले गुरुओं की शिक्षा की इच्छा करता हूँ ।।११।। मूल - होउ मे एएहिं संजोगी। होउ मे एसा सुपत्थणा। होउ मे इत्थ बहुमाणो। होउ मे इओ मुक्खबीअं ति ॥१२॥ - अर्थः अरहन्त भगवन्तों और कल्याणमित्र सद्गुरुओं के साथ मेरा समागम हो। यह मेरी प्रार्थना सफल हो। इस प्रार्थना में मेरा बहुमान हो और इसके फलस्वरूप मुझे मोक्ष के बीज (कुशलानुबंधि कर्म) की प्राप्ति हो ।।१२।। मूल - पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिआ, आणारिहे सिआ, पडिवत्तिजुए श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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