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________________ [32 : १-३२ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः 32 ) न परमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि । त्यक्त्वा सत्पथमपथप्रवृत्तयः क्षुद्रबुद्धीनाम् ॥ ३२॥ 33) सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथाः स्वर्गापवर्गार्गलाः वज्राणि व्रतपर्वतेषु विषमाः संसारिणां शत्रवः । प्रारम्भे मधुरेषु पाककटुकेष्वेतेषु सद्धीधनैः कर्तव्या न मतिर्मनागपि हितं वाञ्छद्भिरत्रात्मनः ॥ ३३ ॥ प्रभूतानि उत्पन्नानि भवन्ति । ये अपथप्रवृत्तयः कुमार्गे गमनशीलाः सत्पथं त्यक्त्वा अपथे चलन्ति तेषां क्षुद्रबुद्धीनां बहूनि व्यसनानि सन्ति ॥ ३२ ॥ सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथाः सन्ति । खर्गगमने अपवर्ग-मोक्षगमने अर्गलाः । पुनः व्रतपर्वतेषु वज्राणि सन्ति । पुनः किलक्षणानि व्यसनानि । संसारिणां जीवानां विषमाः कठिनाः शत्रवः वर्तन्ते । एतेषु निन्द्यव्यसनेषु । सद्धीधनैः विवेकिभिः । मनागपि मतिर्न कर्तव्या । किंलक्षणेषु व्यसनेषु । प्रारम्भे मधुरेषु पाककटुकेषु । किंलक्षणैः सद्धीधनैः। अत्र जगति आत्मनः गया और उसके हरणका उपाय सोचने लगा। उसने विद्याविशेषसे ज्ञात करके कुछ दूरसे सिंहनाद किया। इससे रामचन्द्र लक्ष्मणको आपत्तिग्रस्त समझकर उसकी सहायतार्थ चले गये । इस प्रकार रावण अवसर पाकर सीताको हरकर ले गया। इधर लक्ष्मण खरदूषणको मारकर युद्धमें विजय प्राप्त कर चुका था । वह अकस्मात् रामचन्द्रको इधर आते देखकर बहुत चिन्तित हुआ । उसने तुरन्त ही रामचन्द्रको वापिस जानेके लिये कहा । उन्हें वापिस पहुंचनेपर वहां सीता दिखायी नहीं दी । इससे वे बहुत व्याकुल हुए । थोड़ी देरके पश्चात् लक्ष्मण भी वहां आ पहुंचा । उस समय उनका परिचय सुग्रीव आदि विद्याधरोंसे हुआ । जिस किसी प्रकारसे हनुमान लंका जा पहुंचा । उसने वहां रावणके उद्यानमें स्थित सीताको अत्यन्त व्याकुल देखकर सान्त्वना दी और शीघ्र ही वापिस आकर रामचन्द्रको समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । अन्तमें युद्धकी तैयारी करके रामचन्द्र सेनासहित लंका जा पहुंचे । उन्होंने सीताको वापिस देनेके लिये रावणको बहुत समझाया, किन्तु वह सीताको वापिस करनेके लिये तैयार नहीं हुआ । उसे इस प्रकार परस्त्रीमें आसक्त देखकर स्वयं उसका भाई विभीषण भी उससे रुष्ट होकर रामचन्द्रकी सेनामें आ मिला । अन्तमें दोनोमें घमासान युद्ध हुआ, जिसमें रावणके अनेक कुटुम्बी जन और स्वयं वह भी मारा गया । परस्त्रीमोहसे रावणकी बुद्धि नष्ट हो गई थी, इसीलिये उसे दूसरे हितैषी जनोंके प्रिय वचन भी अप्रिय ही प्रतीत हुए और अन्तमें उसे इस प्रकारका दुःख सहना पड़ा ॥ ३१ ॥ केवल इतने ( सात ) ही व्यसन नहीं हैं, किन्तु दूसरे भी बहुत-से व्यसन हैं । कारण कि अल्पमति पुरुष समीचीन मार्गको छोड़कर कुत्सित मार्गमें प्रवृत्त हुआ करते हैं ॥ विशेषार्थ-जो असत्प्रवृत्तियां मनुष्यको सन्मार्गसे भ्रष्ट करती हैं उनका नाम व्यसन है। ऐसे व्यसन बहुत हो सकते हैं। उनकी वह सात संख्या स्थूल रूपसे ही निर्धारित की गई है। कारण कि मन्दबुद्धि जन सन्मार्गसे च्युत होकर विविध रीतियोंसे कुमार्गमें प्रवृत्त होते हैं। उनकी ये सब प्रवृत्तियां व्यसनके ही अन्तर्गत हैं । अत एव व्यसनों की यह सात (७) संख्या स्थूल रूपसे ही समझनी चाहिये ॥३२॥ सभी व्यसन नरकादि दुर्गतियोंके कारण होते हुए स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिमें अर्गला (बेड़ा) के समान हैं, इसके अतिरिक्त वे व्रतरूपी पर्वतोंको नष्ट करनेके लिये वज्र जैसे होकर संसारी प्राणियों के लिये दुर्दम शत्रुके समान ही हैं । ये व्यसन यद्यपि प्रारम्भमें मिष्ट प्रतीत होते हैं, परन्तु परिणाममें वे कटुक ही हैं। इसीलिये यहां आत्महितकी इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंको इन व्यसनोंमें जरा मी बुद्धि नहीं करनी चाहिये ॥ ३३ ॥
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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