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________________ । -31 : १-३१] १. धर्मोपदेशामृतम् १७ रत्न वापिस मांगे। पुरोहितने पागल बतलाकर उसे घरसे बाहिर निकलवा दिया । पागल समझकर ही उसकी बात राजा आदि किसीने भी नहीं सुनी । एक दिन रानीने उसकी बात सुननेके लिये राजासे आग्रह किया। राजाने उसे पागल बतलाया जिसे सुनकर रानीने कहा कि पागल वह नहीं है, किन्तु तुम ही हो। तत्पश्चात् राजाकी आज्ञानुसार रानीने इसके लिये कुछ उपाय सोचा । उसने पुरोहितके साथ जुवा खेलते हुए उसकी मुद्रिका और छुरीयुक्त यज्ञोपवीत भी जीत लिया, जिसे प्रत्यभिज्ञानार्थ पुरोहितकी स्त्रीके पास भेजकर वे चारों रत्न मंगा लिये। राजाको शिवभूतिके इस व्यवहारसे बड़ा दुख हुआ। राजाने उसे गोबरभक्षण, मुष्टिघात अथवा निज द्रव्य समर्पणमेंसे किसी एक दण्डको सहनेके लिये बाध्य किया। तदनुसार वह गोबरभक्षणके लिये उद्यत हुआ, किन्तु खा नहीं सका । अत एव उसने मुष्टिघात (चूंसा मारना) की इच्छा प्रगट की। तदनुसार मल्लों द्वारा मुष्टिधात किये जानेपर वह मर गया और राजाके भाण्डागारमें सर्प हुआ । इस प्रकार उसे चोरी व्यसनके वश यह कष्ट सहना पड़ा । ७ रावण-किसी समय अयोध्या नगरीमें राजा दशरथ राज्य करते थे। उनके ये चार पत्नियां थीं- कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी और सुप्रभा । इनके यथाक्रमसे ये चार पुत्र उत्पन्न हुए थे- रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न । एक दिन राजा दशरथको अपना बाल सफेद दिखायी दिया । इससे उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ । उन्होंने रामचन्द्रको राज्य देकर जिनदीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया। पिताके साथ भरतके भी दीक्षित हो जानेका विचार ज्ञात कर उसकी माता कैकेयी बहुत दुखी हुई । उसने इसका एक उपाय सोचकर राजा दशरथसे पूर्वमें दिया गया वर मांगा । राजाकी खीकृति पाकर उसने भरतके लिये राज्य देनेकी इच्छा प्रगट की । राजा विचारमें पड़ गये। उन्हें खेदखिन्न देखकर रामचन्द्रने मंत्रियोंसे इसका कारण पूछा और उनसे उपर्युक्त समाचार ज्ञातकर स्वयं ही भरतके लिये प्रसन्नतापूर्वक राज्यतिलक कर दिया । तत्पश्चात् 'मेरे यहां रहनेपर भरतकी प्रतिष्ठा न रह सकेगी' इस विचारसे वे सीता और लक्ष्मणके साथ अयोध्यासे बाहिर चले गये। इस प्रकार जाते हुए वे दण्डक वनके मध्यमें पहुंच कर वहां ठहर गये । यहां वनकी शोभा देखते हुए लक्ष्मण इधर उधर घूम रहे थे। उन्हें एक बांसोंके समूहमें लटकता हुए एक खड्ग (चन्द्रहास ) दिखायी दिया । उन्होंने लपककर उसे हाथमें ले लिया और परीक्षणार्थ उसी बांससमूहमें चला दिया । इससे बांससमूहके साथ उसके भीतर बैठे हुए शम्बूककुमारका शिर कटकर अलग हो गया। यह शम्बूककुमार ही उसे यहां बैठकर बारह वर्षसे सिद्ध कर रहा था। इस घटनाके कुछ ही समयके पश्चात् खरदूषणकी पत्नी और शम्बूककी माता सूर्पनखा वहां आ पहुंची । पुत्रकी इस दुरवस्थाको देखकर वह विलाप करती हुई इधर उधर शत्रुकी खोज करने लगी। वह कुछ ही दूर रामचन्द्र और लक्ष्मणको देखकर उनके रूपपर मोहित हो गयी। उसने इसके लिये दोनोंसे प्रार्थना की । किन्तु जब दोनोंमेंसे किसीने भी उसे स्वीकार न किया तब वह अपने शरीरको विकृत कर खरदूषणके पास पहुंची और उसे युद्धके लिये उत्तेजित किया । खरदूपण भी अपने साले रावणको इसकी सूचना करा कर युद्धके लिये चल पड़ा । सेनासहित खरदूषणको आता देखकर लक्ष्मण भी युद्धके चल दिया। वह जाते समय रामचन्द्रसे यह कहता गया कि यदि मैं विपत्तिग्रस्त होकर सिंहनाद करूं तभी आप मेरी सहायताके लिए आना, अन्यथा यही स्थित रहकर सीताकी रक्षा करना । इसी बीच पुष्पक विमानमें आरूढ होकर रावण भी खरदूषणकी सहायतार्थ लंकासे इधर आरहा था । वह यहां सीताको बैठी देखकर उसके रूपपर मोहित हो पद्मनं. ३
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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