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________________ -37:१-३७] १. धर्मोपदेशामृतम् 34 ) मिथ्यादृशां विसदृशां च पथच्युतानां मायाविना व्यसनिना च खलात्मनां च । संगं विमुञ्चत वुधाः कुरुतोत्तमानां गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव ॥ ३४॥ 35) स्निग्धैरपि बजत मा सह संगमेभिः क्षुद्रैः कदाचिदपि पश्यत सर्षपाणाम् । नेहोऽपि संगतिकृतः खलताश्रितानां लोकस्य पातयति निश्चितमश्रु नेत्रात् ॥ ३५ ॥ 36 ) कलावेकः साधुर्भवति कथमप्यत्र भुवने स चाघ्रातः क्षुद्रैः कथमकरुणैर्जीवति चिरम् । अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरञ्चधुचरतां बकोटानामग्रे तरलशफरी गच्छति कियत् ॥ ३६॥ 37 ) इह वरमनुभूतं भूरि दारिद्यदुःखं वरमतिविकराले कालवक्त्रे प्रवेशः। भवतु वरमितोऽपि क्लेशजालं विशालं न च खलजनयोगाजीवितं वा धनं वा ॥३७॥ हित वाच्छद्भिः हितंति]वाञ्छकैः ॥ ३३ ॥ भो बुधाः भो पण्डिताः । यदि चेत् । उन्नतमार्गे एव निश्चयेन गन्तुं मतिरस्ति तदा मिथ्यादृशां संगं विमुच्चत। विसदृशां विपरीतानां संग विमुञ्चत । चकारग्रहणात् पथच्युताना संग विमुञ्चत । व्यसनिनां संग वेमुञ्चत । मायाविना संग विमुञ्चत । खलात्मनां संग विमुञ्चत । भो जनाः उत्तमानां संगं कुरुत ॥३४॥ भो बुधाः। एभिः क्षुदैः सह कदाचिदपि संगं मा व्रजत । किंलक्षणैः क्षुदैः । स्निग्धैरपि स्नेहयुक्तैरपि । भो भव्याः । पश्यत । खलताश्रिताना सर्षपाणां स्नेहोऽपि संगतिकृतः निश्चितं लोकस्य नेत्रादश्रु पातयति ॥ ३५॥ अत्र भुवने संसारे। कलौ पञ्चमकाले। कथमपि एकः साधुर्भवति। स च साधुः । क्षुदैः आघ्रातः पीडितः। चिरं चिरकालं कथं जीवति। किंलक्षणैः क्षुदैः। अकरुणैः दयारहितः। अतिप्रीष्मे ज्येष्ठाषाढे [ज्येष्ठाषाढयोः] । शुष्यत्सरसि शुष्कसरोवरे । बकोटाना बकानाम् अग्रे। तरलशफरी चच्चलमत्सिका। कियद दूरे गच्छति। किंलक्षणानां बकानाम् । विचरचञ्चुचरताम् ॥३६॥ इह संसारे। भूरि दारिद्रयदुःखम् अनुभूतम् । वरं श्रेष्टम् । अतिविकराले अतिरुद्रे । कालवक्त्रे कालमुखे। प्रवेशः वरं शुभम् । इतः संसारात् । विशालं फ्लेशजालमपि भवतु वरम्। यदि उत्तम मार्गमें ही गमन करनेकी अभिलाषा है तो बुद्धिमान् पुरुषोंका यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे मिथ्यादृष्टियों, विसदृशों अर्थात् विरुद्ध धर्मानुयायियों, सन्मार्गसे भ्रष्ट हुए, मायाचारियों, व्यसनानुरागियों तथा दुष्ट जनोंकी संगतिको छोड़कर उत्तम पुरुषोंका सत्संग करें ॥ ३४ ॥ उपर्युक्त मिथ्यादृष्टि आदि क्षुद्र जन यदि अपने स्नेही भी हों तो भी उनकी संगति कभी भी न करना चाहिये । देखो, खलता (तेल निकल जानेपर प्राप्त होनेवाली सरसोंकी खल भागरूप अवस्था, दूसरे पक्षमें दुष्टता ) के आश्रित हुए क्षुद्र सरसोंके दानोंका स्नेह (तेल) भी संगतिको प्राप्त होकर निश्चयतः लोगोंके नेत्रोंसे अश्रुओंको गिराता है। विशेषार्थजिस प्रकार छोटे भी सरसोंके दानोंसे उत्पन्न हुए स्नेह (तेल) के संयोगसे उसकी तीक्ष्णताके कारण मनुष्यकी आंखोंसे आंसू निकलने लगते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त क्षुद्र मिथ्यादृष्टि आदि दुष्ट पुरुषोंके खेह (प्रेम, संगति) से होनेवाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुखका अनुभव करनेवाले प्राणीकी भी आंखोंसे पश्चात्तापके कारण आंसू निकलने लगते हैं। अत एव आत्महितैषी जनोंको ऐसे दुष्ट जनोंकी संगतिका परित्याग करना ही चाहिये ॥ ३५॥ इस लोकमें कलिकालके प्रभावसे बड़ी कठिनाईमें एक आध ही साधु होता है। वह भी जब निर्दय दुष्ट पुरुषोंके द्वारा सताया जाता है तब भला कैसे चिरकाल जीवित रह सकता है ? अर्थात् नहीं रह सकता । ठीक ही है-जब तीक्ष्ण ग्रीष्मकालमें तालाबका पानी सूखने लगता है तब चोंचको हिलाकर चलनेवाले बगुलोंके आगे चंचल मछली कितनी देर तक चल सकती है ? अर्थात् बहुत अधिक समय तक वह चल नहीं सकती, किन्तु उनके द्वारा मारकर खायी ही जाती है ॥ ३६॥ संसारमें निर्धनताके भारी दुखका अनुभव करना कहीं अच्छा है, इसी प्रकार अत्यन्त भयानक मृत्युके मुखमें प्रवेश करना भी कहीं अच्छा है, इसके अतिरिक्त यदि यहां और भी अतिशय कष्ट प्राप्त होता है तो वह भी भले हो; परन्तु दुष्ट जनोंके सम्बन्धसे जीवित
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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