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________________ ५८ पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिः लोक १ - ५०, पृ. १६९ १०. सद्बोधचन्द्रोदय अपरिमित व अनिर्वचनीय अनेकधर्मात्मक विजयवंत हो मुक्ति-सीके अभिलाषी इसके लिये नमस्कार विश्वरूपकी महिमा मन अपने मरणके भयले परमात्मामें स्थित नहीं होता अज्ञानी आत्मगत तत्वको अन्यत्र देखता है प्रतीतिसे रहित तपस्वी नाटकके पात्र जैसे हैं। भवभ्रमणका कारण भनेकधर्मात्मक अन्ध- हरितम्यायसे चित्तस्वको जानना है मात्माकी अनेकधर्मात्मकता स्वाभाविक चेतनाके माश्रयसे जीव निज स्वरूपको प्राप्त कर लेता है। मात्मस्वरूपकी प्राप्तिका उपाय योगीके सुख-दुखकी कल्पना क्यों नहीं होती मनकी गतिके निरालम्ब होनेपर अज्ञान बाधक नहीं होता रोग और जरा भादि शरीरके आश्रित है, आत्मा के नहीं योगकी महिमा आत्माका रमणीय पद शुद्ध बोध है भात्मबोधरूप तीर्थमें खान करनेसे अभ्यन्तर मल नष्ट होता है। चित्-समुद्र तटके आराधनसे रोंका संचय अवश्य होता है। सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रय निश्चयले एक ही है सम्यग्दर्शनादिरूप बाणोंका फह मुनिकी वृत्ति कैसी होती है समीचीन समाधिका फल योगकी कल्पवृक्षसे समानता जब तक परमात्मबोध नहीं होता तब तक ही श्रुतका परिशीलन होता है प्रदीप मोहान्धकारको कब नष्ट करता है। बाह्य शास्त्रोंमें विचरनेवाली बुद्धि दुराचारिणी बीके समान है। १-२ ३ 2-19 ८ ९-१० 91 १२ 12-18 १५ १६-२० २१ २२ २३-१५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३६ ३७ गुरुके उपदेशका प्रभाव योगसिद्धिका कारण साम्बभाव है परमात्माका केवळ नामस्मरण भी अनेक जन्मोंके पापको न करता है। ३८ १२ योगमायक कौन ४३ योगीको स्व और परको समान देखना चाहिये ४४ अज्ञानी के विकारोंको देखकर योगी लुग्ध नहीं होता इस के पढ़ने से प्रबोध प्राप्त होनेवाला है पद्मनन्दीरूप चन्द्रसे की गई रमणीयता जयवंत हो योगीका स्वरूप गुरुके द्वारा उपदिष्ट तबके हृदयस्थ होनेपर मुझे किसीका भय नहीं है सोधचन्द्रोदय जयवंत हो ११. निश्चयपञ्चाशत् चिन्मयज्योति जयवंत हो | मोहान्धकारका नाशक गुरु जयवंत हो सच्चा सुख दुःसाध्य मुक्तिमें है शुद्ध भात्मज्योतिकी उपलब्धि सुलभ नहीं है आत्मबोधकी अपेक्षा उसका अनुभव और भी श्लोक ३९-४० 81 ४५ ४६ 90 ४८ सम्यग्ज्ञानके बिना साधु वनमें स्थित वृक्षके समान सिद्ध नहीं हो सकता ३२-३४ शुजनयनिह कौन होता है। शुद्ध व मशुद्ध नयोंका कार्य ३५ रत्नत्रयकी पूर्णता होनेपर जम्मपरम्परा चालू नहीं रह सकती ४९ ५० १-६२, पृ. १८१ 1-2 8 ५ ६ दुर्लभ है व्यवहार और शुद्ध नयका स्वरूप व उनका प्रयोजन ८-१० मुख्य व उपचार विवरणोंके जामनेका उपायभूत होनेसे ही व्यवहार पूज्य है 99 रत्नत्रयका स्वरूप व उसकी मात्मासे अमिता १२-१४ सम्यग्दर्शनाविरूप बाणोंकी सफलता १५ १६ १७ १८ १९ २० चित्त-तरुके नाशका उपाय कर्मरूप कीचड़ मेदज्ञानरूप कतक फलले नह होता है २१
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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