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________________ मिथ्या हो विषय-सूची छोक श्लोक सिदज्योतिके भाराधनसे योगी स्वयं भी सिद्ध हो एक मात्र परमात्माकी शरणमें जानेसे सब कुछ जाता है सिद्ध होता है सिदज्योतिकी विविधरूपता मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना बनेकान्त सिद्धान्तका अवगाहन करनेवाला ही रूप नौ स्थानों द्वारा किया गया पाप सिद्धारमाके रहस्यको मान सकता है १४ । तत्वज्ञ और भतत्वज्ञकी रष्टि किस प्रकारसे शुद्ध सर्वज्ञ जिनके जाननेपर भी दोषोंकी मालोचना आत्मशुद्धिके लिये की जाती है। और अशुद्ध पदको करती है १५-१६ आगमानुसार असंख्यात दोषोंका प्रायश्रित सांगोपांग श्रुतके अभ्यासका फल सिद्धत्वकी सम्भव नहीं प्राप्ति है जो निःस्पृहतापूर्वक भगवान्को देखता है वह यह सिदोंका वर्णन मेरे लिये मोक्षप्रासादपर भगवान्के निकट पहुंच जाता है " बढ़नेके लिये नसैनी जैसा है मनका नियन्त्रण अतिशय कठिन है १२-१५ मुक्तात्मरूप तेनका स्वरूप मन भगवान्को छोड़कर बाह्य पदार्थोकी मोर मय- निपादिके माश्रित विवरणसे रहित सिद्ध क्यों जाता है जयवंत हों सब कर्मों में मोह ही भतिशय बलवान् है सिद्धस्वरूपके जानकार साम्राज्यको भी तृणके जगत्को क्षणभंगुर देखकर मनको परमात्माकी समान तुच्छ समझते हैं मोर लगाना चाहिये १७ सिदोंका स्मरण करनेवाले भी वंदनीय हैं २३ भशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगका कार्य १८ पुलिमानों में अग्रणी कौन है, इसके लिये पाणका मैं जिस ज्योतिःस्वरूप हूं वह कैसी है १९ उदाहरण जीव और परमात्माके बीच मेद करनेवाला कर्म है २० सिद्धारमज्ञानसे शून्य शाखान्तरोंका हान व्यर्थ है २५ शरीर और उससे सम्बद्ध इन्द्रियां तथा रोग भादि पुद्गलस्वरूप हैं जो भारमासे अनन्त ज्ञान-दर्शनसे सम्पन सिद्धोंसे शिवसुखकी सर्वथा भिन्न हैं याचना | धर्मादिक पांच द्रव्यों में एक पुद्गल ही राग-द्वेषके मात्माको गृहकी उपमा वश कर्म-नोकर्मरूप होकर जीवका महित सिद्धोंकी ही गति मादि अभीष्ट है २८ किया करता है २५-२६ सिद्धोंकी यह स्तुति केवल भक्तिके वश की गई है २९ | सचा सुख वास विकल्पोंको छोड़कर भारमोन्मुख होनेपर प्राप्त होता है २७-२८ ९. आलोचना १-३३, पृ. १२८/ वास्तवमें द्वैतबुद्धि ही संसार और अद्वैत ही मोक्ष है मनसे परमात्मस्वरूपका चिन्तम करनेपर इस कलिकालमें चारित्रका परिपालन न हो अभीष्टकी प्राप्तिमें बाधा नहीं मा सकती । सकनेसे भापकी भक्ति ही मेरा संसारसे सत्पुरुष जिनचरणोंकी भाराधना क्यों करते हैं २ उद्धार करे बिनसेवाले संसार-शत्रुका भय नहीं रहता ३ मुक्तिप्रद मोक्षमार्गके पूर्ण करनेकी प्रार्थना तीनों लोकोंमें सारभूत एक परमात्मा ही है । वीरनन्दी गुरुके सदुपदेशसे मुझे तीन लोकका अनन्तचतुष्टयस्वरूप परमात्माके जान लेनेपर राज्य भी अमीष्ट नहीं है फिर जामनेके लिये शेष कुछ नहीं रहता ५ भालोचनाके पढनेका फल २१-२५
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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