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________________ २२ २८ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः लोक । ग्लोक चक्षुभों और कानोंसे संयुक्त होकर भी अन्धे देशवतको किस अवस्था में ग्रहण करना योग्य है । व बहिरे कौन हैं। २०-२१ उपासकके द्वारा अनुष्ठेय समस्त व्रतविधान ५ देशव्रत सफल कब होता है व्रती गृहस्थका स्वरूप माठ मूल गुणों और बारह उसर गुणोंका निर्देश २३-२५ | देशव्रतीके देवाराधनादि कार्यों में दान प्रमुख है पों में क्या करना चाहिये श्रावकको ऐसे देशादिका आश्रय नहीं करना | आहारादि चतुर्विध दानका स्वरूप व उसकी आवश्यकता चाहिये जहां सम्यक्त्व व व्रत सुरक्षित न रह सकें सब दानोंमें अभयदान मुख्य क्यों है भोगोपभोगपरिमाणकी विधेयता २७ पापसे उपार्जित धनका सदुपयोग दान है १३-१४ रत्नत्रयका पालन इस प्रकार करे जिससे जन्मान्तरमें पात्रोंके उपयोगमें आनेवाला धन ही सुखप्रद है १५ तत्वश्रद्धान वृद्धिंगत हो दान परम्परासे मोक्षका मी कारण है उपासकको यथायोग्य परमेष्ठी, रत्नत्रय और उसके धारकोंकी विनय करना चाहिये जिनदर्शनादिके बिना गृहस्थाश्रम पत्थरकी नाव विनयको मोक्षका द्वार कहा जाता है जैसा है उपासकको दान भी करना चाहिये दाता गृहस्थ चिन्तामणि मादिसे श्रेष्ठ है दानके विना गृहस्थ जीवन कैसा है | धर्मस्थितिकी कारणभूत जिनप्रतिमा और साधर्मियोंमें वात्सल्य के विना धर्म सम्भव नहीं ३६ जिनभवनके निर्माणकी मावश्यकता २०-२३ दयाके विना धर्म सम्भव नहीं भणुव्रतोंके धारणसे स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त होता है २४ दयाकी महिमा ३८-३९ | चार पुरुषार्थों में मोक्ष उपादेय व शेष हेय है २५ मुनि और धावकोंके व्रत एक मात्र अहिंसाकी भणुव्रतों और महावतोंसे एक मात्र मोक्ष ही सिद्धि के लिये हैं साध्य है केवल प्राणिपीडन ही पाप नहीं, बल्कि उसका देशव्रतोयोतन जयवंत हो २७ संकल्प भी पाप है बारह अनुपेक्षामोंका स्वरूप व उनके चिन्तनकी प्रेरणा ८. सिद्धस्तुति १-२९, पृ. १४७ १२-५८ दस भेदरूप धर्मके सेवनकी प्रेरणा | भवधिज्ञानियोंके भी भविषयभूत सिद्धोंका वर्णन मोक्षप्राप्तिके लिये भन्तस्तस्व और बहिस्तत्व | হায় । दोनोंका ही भाश्रय लेना चाहिये | नमस्कारपूर्वक सिद्धोंसे मंगलयाचना आस्माका स्वरूप व उसके चिन्तनकी प्रेरणा | भात्माको सर्वम्यापक क्यों कहा जाता है ५ उपासकसंस्कारके अनुष्ठानसे भतिशय निर्मल माठ कर्मोके क्षयसे प्रगट होनेवाले गुणोंका धर्मकी प्राप्ति होती है निर्देश कर्मोकी दुखप्रदता ७. देशव्रतोयोतन १-२७, पृ. १३९ जब एकेन्द्रियादि जीव भी उत्तरोत्तर हीन कर्माधर्मोपदेशमें सर्वज्ञके ही वचन प्रमाण हैं वरणसे अधिक सुख व शानसे संयुक्त हैं सम्यग्दृष्टि एक भी प्रशंसनीय है, तब कर्मसे सर्वथा रहित सिद्ध क्यों न न कि मिथ्यादृष्टि बहुत भी पूर्ण सुख व ज्ञानसे संयुक्त होंगे ८-१० मोक्ष-वृक्षका बीज सम्यग्दर्शन और संसार-वृक्षका कर्मजन्य क्षुधा भादिके अभावमें सिद्ध सदा बीज मिथ्यादर्शन है ही नृत रहते हैं २६
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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