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________________ २६ " विषय-सूची लोक जो प्रेमसे उस परमज्योतिकी बात भी सुनता ५. यतिभावनाष्टक १-९, पृ. १२५ है उसे मुक्तिका भाजन भव्य समझना मोहकर्मजनित विकल्पोंसे रहित मुनि जयवंत हो । चाहिये २३ मनि क्या विचार करते हैं जो कर्मसे पृथक् एक मास्माको जानता है वह कृती कौन कहा जाता है उसके स्वरूपको पा लेता है ऋतुविशेषके अनुसार कष्ट सहनेवाले शान्त परका सम्बन्ध बन्धका कारण है २५ मुनियों के मार्गसे जानेकी अभिलाषा ६ कर्मके अभावमें भारमा ऐसा शान्त हो जाता है | उत्कृष्ट समाधिका स्वरूप व उसके धारक . जैसा वायुके भभावमें समुद्र अन्तस्तत्वके ज्ञाता वे मुनि हमारे लिये शान्तिके मात्म-परका विचार २७-३८ निमित्त होवें वही भास्मज्योति ज्ञान-दर्शनादिरूप सब कुछ है ३९-५२ | यतिभावनाष्टकके पढ़नेका फल मोक्षकी भी इच्छा मोक्षप्राप्तिमें बाधक है ५३ भन्य जीवको चैतन्यस्वरूप आत्माका विचार ६. उपासकसंस्कार १-६२, पृ. १२८ ___ कर जन्मपरम्पराको नष्ट करना चाहिये ५४--५७ धर्मस्थितिके कारणभूत भादि जिनेन्द्र भनेक रूपोंको प्राप्त उस परमज्योतिका वर्णन व श्रेयांस राजाका स्मरण ___करना सम्भव नहीं है धर्मका स्वरूप जो जीव उस भात्मतत्वका विचार ही करता है। दीर्घतर संसार किनका है वह देवोंके द्वारा पूजा जाता है . ६२ धर्मके दो भेद और उनके स्वामी सर्वश देवने उस परमज्योतिकी प्राप्तिका उपाय गृहस्थ धर्मके हेतु क्यों माने जाते हैं साम्यभाषको बतलाया है कलिकालमें जिनालय, मुनियोंकी स्थिति और साम्यके समानार्थक नाम व उसका स्वरूप ६४-६९ दानधर्मके मूल कारण श्रावक हैं। समता-सरोवर के भाराधक मारमा-हंसके लिये गृहस्थोंके षट् कर्म ___ नमस्कार सामायिक व्रतका स्वरूप ज्ञानी खीवको तापकारी मृत्यु भी अमृत (मोक्ष) सामायिकके लिये सात व्यसनोंका त्याग भावश्यक ९-१० संगके लिये होती है न्यसनीके धर्मान्वेषणकी योग्यता नहीं होती " विवेकके विना मनुष्य पर्याय माविकी व्यर्थता ७२ | सात नरकोंने अपनी समृद्धिके लिये मानो विवेका स्वरूप एक एक व्यसनको नियुक्त किया है १२ विवेकी जीवके लिये संसारमें सब ही दुखरूप | पापरूप राजाने धर्म-शत्रुके विनाशार्थ अपने प्रतिभासित होता है राज्यको सात व्यसनोंसे सांगस्वरूप विवेकी जीवके लिये हेय क्या और उपादेय क्या है ७५ किया है मैं किस स्वरूप भकिसे जिनदर्शनादि करनेवाले स्वयं वंदनीय एकत्वससतिके लिये गंगा नदीकी उपमा हो जाते हैं पर पकत्वसप्तति संसार-समुद्रसे पार होने में जिनदर्शनादि न करनेवालोंका जीना म्यर्थ है १५ पुलके समान है उपासकोंको प्रातःकालमें और तत्पश्चात् मुझे कर्म और तस्कृत विकृति मादि सब मारमासे क्या करना चाहिये १६-१७ भित्र प्रतिभासित होते हैं ज्ञान-लोचनकी प्राप्तिके कारणभूत गुरुषोंकी एकत्लसप्ततिके अभ्यास भाविका फल उपासना 16-१९
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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