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________________ ग्लोक पप्रनन्दि-पञ्चविंशतिः श्लोक कृपण गृहस्थसे तो कौषा ही अच्छा है ४६ संयोग-वियोग व जन्म-मरणादि अविनाभावी हैं ५२ कृपणके धनकी स्थिरतापर ग्रन्थकारकी कल्पना ७ | देवकी प्रबलताको देखकर धर्ममें रत होना उत्तम पात्र भादिका स्वरूप व उनके लिये दिये चाहिये ५३-५४ गये दानका फल अनिस्यपञ्चाशत् जयवंत होवे दानके चार भेद जिनालयके लिये किया गया भूमिदान संस्कृतिकी ४. एकत्वसप्तति १-८०, पृ. १११ स्थिरता का कारण है ५१ परमात्मा व चिदात्मक ज्योतिको नमस्कार कृपणको दानका उपदेश नहीं रुचता, वह तो १-३ भासमभव्यके लिये ही प्रीतिकर होता है ५२-५३ चित्तत्त्व प्रत्येक प्राणीमें है, पर अज्ञानी उसे प्रकरणके मन्तमें गुरु वीरनन्दीके उपकारका स्मरण ५४ जानते नहीं अनेक शास्त्रज्ञ भी उसे काष्ठमें स्थित भग्निके ३. अनित्यपञ्चाशत् १-५५, पृ. ९३ समान नहीं जानते हैं कितने ही समझाये जानेपर भी उसे स्वीकार प्रकरणके प्रारम्भमें जिनका स्मरण नहीं करते शरीरका स्वरूप व उसकी अस्थिरता २-३ कितने ही अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूपको शरीरादिके स्वभावतः अस्थिर होनेपर उनके लिये शोक व हर्षका मानना योग्य नहीं एकान्तरूपसे ग्रहणकर जात्यन्ध पुरुषोंके ४-३० । समान नष्ट होते हैं यम सर्वत्र विद्यमान है | कितने ही थोड़ा-सा जानकर भी उसे गर्वके वश उदयप्राप्त कर्मका फल सभीको भोगना पड़ता है ३२ । ग्रहण नहीं करते दैवकी प्रबलताका उदाहरण लोगोंने धर्मके स्वरूपको विकृत कर दिया है ९ मृत्युके ग्रास बनते हुए भी अज्ञानी जन स्थिरता कौन-सा धर्म यथार्थ है का अनुभव करते हैं ३४-४१ चैतन्यका ज्ञान और उसका संयोग दुर्लभ है " संसारकी परिवर्तनशीलताको देखकर गर्वके भव्य जीव पांच लब्धियोंको पाकर मोक्षमार्गमें लिये अवसर नहीं रहता ४२-४३ स्थित होता है १२ मनुष्य सम्पसिके लिये कैसा अनर्थ करता है ४४ मुक्तिके कारणभूत सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप १३-१४ शोकसे होनेवाली हानिका दिग्दर्शन १५ शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वे सम्यग्दर्शनादि भिन्न भापत्तिस्वरूप संसारमें विषाद करना उचित नहीं है ४६ न होकर अखण्ड भारमस्वरूप हैं जीवित मादिको नश्वर देखकर भी भारमहित प्रमाण, नय और निक्षेप अर्वाचीन पदमें नहीं करना पागलपनका सूचक है ४७ उपयोगी हैं मृत्युके भागे कोई भी प्रयत्न नहीं चलता ४८ निश्चय और व्यवहार रष्टिमें भात्मावलोकन १० मनुष्य श्री-पुत्रादिमें मेमे' करता हुमा ही जो एक अखण्ड भारमाको जानता है वही कालका ग्रास बन जाता है ४९ । मुक्तिको प्राप्त होता है। दिनोंको मृत्युके द्वारा विभक्त भायुके खण्ड | केवलज्ञान-दर्शनस्वरूप आत्मा ही जानने देखने ___ही समझना चाहिये योग्य है २०-२१ जोरोंकी तो बात क्या, इन्द्र और चन्द्र भी योगी गुरूपदेशसे भारमाको जानकर कृतकृत्य हो मृत्युके ग्रास बनते हैं जाता है
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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