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________________ ५० पमनन्दि-पञ्चविंशतिः २३. परमार्थविंशति- इस प्रकरणमें २० श्लोक हैं। यहांपर भी शुद्ध चिद्रूप ( अद्वैत ) की प्रशंसा करते हुए यह कहा गया है कि जो जानता देखता है वही मैं हूं, उसको छोड़कर और कोई भी दूसरा स्वरूप मेरा नहीं है । यदि मेरे अन्तःकरणमें शाश्वतिक सुखको प्रदान करनेवाले गुरुके वचन जागते हैं तो फिर मुझसे कोई स्नेह करे या न करे, गृहस्थ मुझे भोजन दें चाहे न दें, तथा जनसमुदाय यदि मुझे नम देखकर निन्दा करता है तो भले ही करता रहे; फिर भी मुझे उससे कुछ भी खेद नहीं है। सुख और दुख जिस कर्मके फल हैं वह कर्म आत्मासे पृथक् है, यह विवेकबुद्धि जिसे प्राप्त हो चुकी है उसके 'मैं सुखी हूं अथवा दुखी हूं' यह विकल्प ही नहीं उत्पन्न होता । ऐसा योगी कभी ऋतु आदिके कष्टको कष्ट नहीं मानता। २४. शरीराष्टक-यहां ८ श्लोकोंके द्वारा शरीरकी स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरताको दिखलाते हुए उसे नाडीव्रणके समान भयानक और कडवी तूंबड़ीके समान उपभोगके अयोग्य बतलाया गया है । साथ ही यह भी कह दिया है कि एक ओर जहां मनुष्य अनेक पोषक तत्त्वोंके द्वारा उसका संरक्षण करके उसके स्थिर रखनेमें उद्यत होता है वहीं दूसरी ओर वृद्धत्व उसे क्रमशः जर्जरित करनेमें उद्यत होता है और अन्तमें वही सफल भी होता है--प्राणीका वह रक्षाका प्रयत्न व्यर्थ होकर अन्तमें यह शरीर कीड़ोंका स्थान या भस्म बन जाता है । २५. स्नानाष्टक-यहां ८ श्लोकोंमें यह कहा गया है कि मलसे परिपूर्ण घड़के समान निरन्तर मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण रहनेवाला यह शरीर कभी जलसानके द्वारा पवित्र नहीं हो सकता है । उसका यथार्थ सान तो विवेक है जो जीवके चिरसंचित मिथ्यात्व आदिरूप अन्तरंग मलको धो देता है । इसके विपरीत उस जलके स्नानसे तो प्राणिहिंसाजनित केवल पाप-मलका ही संचय होता है । जो शरीर प्रतिदिन स्वानको प्राप्त होकर भी अपवित्र बना रहता है तथा अनेक सुगन्धित लेपनोंसे लिप्त होकर भी दुर्गन्धको ही छोड़ता है उसको शुद्ध करनेवाला संसारमें न कोई जल है और न वैसा कोई तीर्थ भी है । २६. ब्रह्मचर्याष्टक- इस नौ श्लोकमय प्रकरणमें यह निर्देश किया गया है कि विषयसेवनके लिये चूंकि अधिकतर पशुओंका मन ही लालायित रहता है, अत एव उसे पशुकर्म कहा जाता है । वह विषयसेवन जब अपनी ही स्त्रीके साथ भी निन्द्य माना जाता है तब भला परस्त्री या वेश्याके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ? यह विषयोपभोग एक प्रकारका वह तीक्ष्ण कुठार है जो संयमरूप वृक्षको निर्मूल कर देता है। +Price
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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