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________________ प्रस्तावना १६. स्वयंभूस्तुति- इस प्रकरणमें २४ श्लोकोंके द्वारा क्रमसे ऋषभादि २४ तीर्थंकरोंकी स्तुति की गई है। १७. सुप्रभाताष्टक- यह ८ श्लोकोंकी एक स्तुति है । प्रभात कालके होनेपर रात्रिका अन्धकार नष्ट होकर सब ओर सूर्यका प्रकाश फैल जाता है । तथा उस समय जनसमुदायकी निद्रा भंग होकर उनके नेत्र खुल जाते हैं। ठीक इसी प्रकारसे मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे जिन भगवान्की निद्रामोहनिर्मित जड़ता – नष्ट हो जाती है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कोंके निर्मूल नष्ट हो जानेसे उनके अनन्त ज्ञान-दर्शनका प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है । इस प्रकार उन्हें उस समय अपूर्व ही उत्तम प्रभातका लाभ होता है । १८. शान्तिनाथस्तोत्र- यहां ९ श्लोकों द्वारा तीन छत्र आदिरूप आठ प्रातिहार्योंका उल्लेख करके भगवान् शान्तिनाथ तीर्थकर की स्तुति की गई। १९. जिनपूजाष्टक- यहां १० श्लोकोंमें क्रमसे जल-चन्दनादि आठ द्रव्योंके द्वारा जिन भगवान्की पूजा की गई है। २०. करुणाष्टक- इस ८ श्लोकोंके प्रकरणमें अपनी दीनता दिखलाकर जिनेन्द्र देवसे दयाकी याचना करते हुए संसारसे अपने उद्धारकी प्रार्थना की गई है। २१. क्रियाकाण्डचूलिका-इस प्रकरणमें १८ श्लोक हैं। उनमें प्रथम ९ श्लोकोंमें समस्त दोषोंसे रहित और सम्यग्दर्शनादि अनेक गुणोंसे विभूषित जिन भगवान्की स्तुति करते हुए उनसे यह प्रार्थना की गई है कि मैं अनन्त गुणोंसे सम्पन्न आपकी स्तुति नहीं कर सकता । साथ ही मुझे इस समय मोक्षका कारणभूत समस्त आगमज्ञान व चारित्र भी नहीं प्राप्त हो सकता हूं । अत एव मैं आपसे यही याचना करता हूं कि मेरी भक्ति सदा आपके विषयमें बनी रहे और मैं इस भव और परभवमें भी आपके चरणयुगलकी सेवा करता रहूं । आप मुझे अपूर्व रत्नत्रय प्रदान करें। तत्पश्चात् जिन भगवान्से यह प्रार्थना की गई है कि रनत्रय एवं मूल व उत्तर गुणों आदिके सम्बन्धमें अभिमान व प्रमादके वश होकर जो मुझसे अपराध हुआ है तथा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे जो मैंने प्राणिपीडन भी किया है व उससे कर्मका संचय हुआ है वह सब आपके चरण-कमलके स्मरणसे मिथ्या हो । अन्तमें जिनवाणीका स्मरण करते हुए इसे क्रियाकाण्डरूप कल्पवृक्षका पत्र बतलाकर उसके जयकी प्रार्थना की गई है और इस क्रियाकाण्डचूलिकाके पदनेके फलकी घोषणा भी की गई है। २२. एकन्वमावनादशक-इस प्रकरणमें ११ श्लोक हैं । यहां परंज्योतिस्वरूपसे प्रसिद्ध व एकत्वरूप अद्वितीय पदको प्राप्त आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि जो उस आत्मतत्त्वको जानता है वह स्वयं दूसरोंके द्वारा पूजा जाता है, उसका आराध्य फिर अन्य कोई नहीं रहता । उस एकत्वका ज्ञान दुर्लभ अवश्य है, पर मुक्तिको प्रदान वही करता है । और मुक्तिमें जो निर्वाध सुख प्राप्त है वह संसारमें सर्वत्र दुर्लभ है।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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